HI/BG 2.68: Difference between revisions
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:इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥ | |||
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Latest revision as of 16:36, 29 July 2020
श्लोक 68
- तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
- इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥
शब्दार्थ
तस्मात्—अत:; यस्य—जिसकी; महा-बाहो—हे महाबाहु; निगृहीतानि—इस तरह वशीभूत; सर्वश:—सब प्रकार से; इन्द्रियाणि—इन्द्रिर्यां; इन्द्रिय-अर्थेभ्य:—इन्द्रियविषयों से; तस्य—उसकी; प्रज्ञा—बुद्धि; प्रतिष्ठिता—स्थिर।
अनुवाद
अतः हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है |
तात्पर्य
कृष्णभावनामृत के द्वारा या सारी इन्द्रियों को भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में लगाकर इन्द्रियतृप्ति की बलवती शक्तियों को दमित किया जा सकता है | जिस प्रकार शत्रुओं का दमन श्रेष्ठ सेना द्वारा किया जाता है उसी प्रकार इन्द्रियों का दमन किसी मानवीय प्रयास के द्वारा नहीं, अपितु उन्हें भगवान् की सेवा में लगाये रखकर किया जा सकता है | जो व्यक्ति यह हृदयंगम कर लेता है कि कृष्णभावनामृत के द्वारा बुद्धि स्थिर होती है औरइस कला का अभ्यास प्रमाणिक गुरु के पथ-प्रदर्शन में करता है, वह साधक अथवा मोक्ष का अधिकारी कहलाता है |