HI/BG 6.4: Difference between revisions

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==== श्लोक 4 ====
==== श्लोक 4 ====


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:यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
 
:सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥
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Latest revision as of 06:36, 2 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥४॥

शब्दार्थ

यदा—जब; हि—निश्चय ही; न—नहीं; इन्द्रिय-अर्थेषु—इन्द्रियतृह्रिश्वत में; न—कभी नहीं; कर्मसु—सकाम कर्म में; अनुषज्जते—निरत रहता है; सर्व-सङ्कल्प—समस्त भौतिक इच्छाओं का; सन्न्यासी—त्याग करने वाला; योग-आरूढ:—योग में स्थित; तदा—उस समय; उच्यते—कहलाता है।

अनुवाद

जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्यागा करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है |

तात्पर्य

जब मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लगा रहता है तो वह अपने आप में प्रसन्न रहता है और इस तरह वह इन्द्रियतृप्ति या सकामकर्म में प्रवृत्त नहीं होता | अन्यथा इन्द्रियतृप्ति में लगना ही पड़ता है, क्योंकि कर्म किए बिना कोई रह नहीं सकता | बिना कृष्णभावनामृत के मनुष्य सदैव स्वार्थ में तत्पर रहता है | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करता है, फलतः वह इन्द्रियतृप्ति से पूरी तरह विरक्त रहता है | जिसे ऐसी अनुभूति प्राप्त नहीं है उसे चाहिए कि भौतिक इच्छाओं से बचे रहने का वह यंत्रवत् प्रयास करे, तभी वह योग की सीढ़ी से ऊपर पहुँच सकता है |