HI/BG 11.16: Difference between revisions
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:पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥१६॥ | |||
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Latest revision as of 09:05, 8 August 2020
श्लोक 16
- अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
- पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
- नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
- पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥१६॥
शब्दार्थ
अनेक—कई; बाहु—भुजाएँ; उदर—पेट; वक्त्र—मुख; नेत्रम्—आँखें; पश्यामि—देख रहा हूँ; त्वाम्—आपको; सर्वत:—चारों ओर; अनन्त-रूपम्—असंख्य रूप; न अन्तम्—अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है; न मध्यम्—मध्य रहित; न पुन:—न फिर; तव—आपका; आदिम्—प्रारम्भ; पश्यामि—देखता हूँ; विश्व-ईश्वर—हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-रूप—ब्रह्माण्ड के रूप में।
अनुवाद
हे विश्र्वेश्र्वर, हे विश्र्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देख रहा हूँ, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है | आपमें न अन्त दीखता है, न मध्य और न आदि |
तात्पर्य
कृष्ण भगवान् हैं और असीम हैं, अतः उनके माध्यम से सब कुछ देखा जा सकता था |