HI/BG 14.26: Difference between revisions

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==== श्लोक 26 ====
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:''jj''
:मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
 
:स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥२६॥
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Latest revision as of 16:32, 11 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 26

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥२६॥

शब्दार्थ

माम्—मेरी; च—भी; य:—जो व्यक्ति; अव्यभिचारेण—बिना विचलित हुए; भक्ति-योगेन—भक्ति से; सेवते—सेवा करता है; स:—वह; गुणान्—प्रकृति के गुणों को; समतीत्य—लाँघ कर; एतान्—इन सब; ब्रह्म-भूयाय—ब्रह्म पद तक ऊपर उठा हुआ; कल्पते—हो जाता है।

अनुवाद

जो समस्त परिस्थितियों में अविचलित भाव से पूर्ण भक्ति में प्रवृत्त होता है, वह तुरन्त ही प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुँच जाता है |

तात्पर्य

यह श्लोक अर्जुन के तृतीय प्रश्न के उत्तरस्वरूप है | प्रश्न है – दिव्य स्थिति प्राप्त करने का साधन क्या है? जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह भौतिक जगत् प्रकृति के गुणों के चमत्कार के अन्तर्गत कार्य कर रहा है | मनुष्य को गुणों के कर्मों से विचलित नहीं होना चाहिए, उसे चाहिए कि अपनी चेतना ऐसे कार्यों में न लगाकर उसे कृष्ण-कार्यों में लगाए | कृष्णकार्य भक्तियोग के नाम से विख्यात है, जिनमें सदैव कृष्ण के लिए कार्य करना होता है | इसमें न केवल कृष्ण ही आते हैं, अपितु उनके विभिन्न पूर्णांश भी सम्मिलित हैं – यथा राम तथा नारायण | उनके असंख्य अंश हैं | जो कृष्ण को किसी भी रूप या उनके पूर्णांश की सेवा में प्रवृत्त होता है, उसे दिव्य पद पर स्थित समझना चाहिए | यह ध्यान देना होगा कि कृष्ण के सारे रूप पूर्णतया दिव्य और सच्चिदानन्द स्वरूप हैं | ईश्र्वर के ऐसे रूप सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ होते हैं और उनमें समस्त दिव्यगुण पाये जाते हैं | अतएव यदि कोई कृष्ण या उनके पूर्णांशो की सेवा में दृढ़संकल्प के साथ प्रवृत्त होता है, तो यद्यपि प्रकृति के गुणों को जीत पाना कठिन है, लेकिन वह उन्हें सरलता से जीत सकता है | इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में पहले ही की जा चुकी है | कृष्ण की शरण ग्रहण करने पर तुरन्त ही प्रकृति के गुणों के प्रभाव को लाँघा जा सकता है | कृष्णभावनामृत या कृष्ण-भक्ति में होने का अर्थ है, कृष्ण के साथ समानता प्राप्त करना | भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रकृति सच्चिदानन्द स्वरूप है और सारे जीव परम के अंश हैं, जिस प्रकार सोने के कण सोने की खान के अंश हैं | इस प्रकार जीव अपनी आध्यात्मिक स्थिति में सोने के समान या कृष्ण के समान गुण वाला होता है | किन्तु व्यष्टित्व का अन्तर बना रहता है अन्यथा भक्तियोग का प्रश्न ही नहीं उठता | भक्तियोग का अर्थ है कि भगवान् हैं, भक्त है तथा भगवान् और भक्त के बीच प्रेम का आदान-प्रदान चलता रहता है | अतएव भगवान् में और भक्त में दो व्यक्तियों का व्यष्टित्व वर्तमान रहता है, अन्यथा भक्तियोग का कोई अर्थ नहीं है | यदि कोई भगवान् जैसे दिव्य स्तर पर स्थित नहीं है, तो वह भगवान् की सेवा नहीं कर सकता | उदाहरणार्थ, राजा का निजी सहायक बनने के लिए कुछ योग्यताएँ आवश्यक हैं | इस तरह भगवत्सेवा के लिए योग्यता है कि ब्रह्म बना जाय या भौतिक कल्मष से मुक्त हुआ जाय | वैदिक साहित्य में कहा गया है ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति| इसका अर्थ है कि गुणात्मक रूप से मनुष्य को ब्रह्म से एकाकार हो जाना चाहिए | लेकिन ब्रह्मत्व प्राप्त करने पर मनुष्य व्यष्टि आत्मा के रूप में अपने शाश्र्वत ब्रह्म-स्वरूप को खोता नहीं |