HI/BG 15.9: Difference between revisions

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==== श्लोक 9 ====
==== श्लोक 9 ====


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:श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
 
:अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥
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Latest revision as of 15:20, 12 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 9

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥

शब्दार्थ

श्रोत्रम्—कान; चक्षु:—आँखें; स्पर्शनम्—स्पर्श; च—भी; रसनम्—जीभ; घ्राणम्—सूँघने की शक्ति; एव—भी; च—तथा; अधिष्ठाय—स्थित होकर; मन:—मन; च—भी; अयम्—यह; विषयान्—इन्द्रियविषयों को; उपसेवते—भोग करता है।

अनुवाद

इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव विशेष प्रकार का कान, आँख, जीभ, नाक तथा स्पर्श इन्द्रिय (त्वचा) प्राप्त करता है, जो मन के चारों ओर संपुंजित है | इस प्रकार वह इन्द्रियविषयों के एक विशिष्ट समुच्चय का भोग करता है |

तात्पर्य

दूसरे शब्दों में, यदि जीव अपनी चेतना को कुत्तों तथा बिल्लियों के गुणों जैसा बना देता है, तो उसे अगले जन्म में कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है , जिसका वह भोग करता है | चेतना मूलतः जल के समान विमल होती है, लेकिन यदि हम जल में रंग मिला देते हैं, तो उसका रंग बदल जाता है | इसी प्रकार चेतना भी शुद्ध है, क्योंकि आत्मा शुद्ध है लेकिन भौतिक गुणों की संगति के अनुसार चेतना बदलती जाती है | वास्तविक चेतना तो कृष्णभावनामृत है, अतः जब कोई कृष्णभावनामृत में स्थित होता है, तो वह शुद्धतर जीवन बिताता है | लेकिन यदि उसकी चेतना किसी भौतिक प्रवृत्ति से मिश्रित हो जाती है, तो अगले जीवन में उसे वैसा ही शरीर मिलता है | यह आवश्यक नहीं है कि उसे पुनः मनुष्य शरीर प्राप्त हो – वह कुत्ता, बिल्ली, सूकर, देवता या चौरासी लाख योनियों में से कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है |