HI/BG 18.61: Difference between revisions

(Bhagavad-gita Compile Form edit)
 
No edit summary
 
Line 6: Line 6:
==== श्लोक 61 ====
==== श्लोक 61 ====


<div class="verse">
<div class="devanagari">
:''h''
:ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
 
:भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥६१॥
</div>
</div>



Latest revision as of 09:40, 18 August 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥६१॥

शब्दार्थ

ईश्वर:—भगवान्; सर्व-भूतानाम्—समस्त जीवों के; हृत्-देशे—हृदय में; अर्जुन—हे अर्जुन; तिष्ठति—वास करता है; भ्रामयन्—भ्रमण करने के लिए बाध्य करता हुआ; सर्व-भूतानि—समस्त जीवों को; यन्त्र—यन्त्र में; आरूढानि—सवार, चढ़े हुए; मायया—भौतिक शक्ति के वशीभूत होकर।

अनुवाद

हे अर्जुन! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में स्थित हैं और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार की भाँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं |

तात्पर्य

अर्जुन परम ज्ञाता न था और लड़ने या न लड़ने का उसका निर्णय उसके क्षुद्र विवेक तक सीमित था | भगवान् कृष्ण ने उपदेश दिया कि जीवात्मा (व्यक्ति) ही सर्वेसर्वा नहीं है | भगवान् या स्वयं कृष्ण अन्तर्यामी परमात्मा रूप में हृदय में स्थित होकर जीव को निर्देश देते हैं | शरीर-परिवर्तन होते ही जीव अपने विगत कर्मों को भूल जाता है, लेकिन परमात्मा जो भूत, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञाता है, उसके समस्त कार्यों का साक्षी रहता है | अतएव जीवों के सभी कार्यों का संचालन इसी परमात्मा द्वारा होता है | जीव जितना योग्य होता है उतना ही पाता है और उस भौतिक शरीर द्वारा वहन किया जाता है, जो परमात्मा के निर्देश में भौतिक शक्ति द्वारा उत्पन्न किया जाता है | ज्योंही जीव को किसी विशेष प्रकार के शरीर में स्थापित कर दिया जाता है, वह शारीरिक अवस्था के अन्तर्गत कार्य करना प्रारम्भ कर देता है | अत्यधिक तेज मोटरकार में बैठा व्यक्ति कम तेज कार में बैठे व्यक्ति से अधिक तेज जाता है, भले ही जीव अर्थात् चालक एक ही क्यों न हो | इसी प्रकार परमात्मा के आदेश से भौतिक प्रकृति एक विशेष प्रकार के जीव के लिए एक विशेष शरीर का निर्माण करती है, जिससे वह अपनी पूर्व इच्छाओं के अनुसार कर्म कर सके | जीव स्वतन्त्र नहीं होता | मनुष्य हो यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भगवान् से स्वतन्त्र है | व्यक्ति तो सदैव भगवान् के नियन्त्रण में रहता है | अतएव उसका कर्तव्य है कि वह शरणागत हो और अगले श्लोक का यही आदेश है |