HI/BG 18.72: Difference between revisions
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Latest revision as of 09:53, 18 August 2020
श्लोक 72
- कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
- कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥७२॥
शब्दार्थ
कच्चित्—क्या; एतत्—यह; श्रुतम्—सुना गया; पार्थ—हे पृथापुत्र; त्वया—तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण—एकाग्र; चेतसा—मन से; कच्चित्—क्या; अज्ञान—अज्ञान का; सम्मोह:—मोह, भ्रम; प्रणष्ट:—दूर हो गया; ते—तुम्हारा; धनञ्जय—हे सम्पत्ति के विजेता (अर्जुन)।
अनुवाद
हे पृथापुत्र! हे धनञ्जय! क्या तुमने इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र चित्त होकर सुना? और क्या अब तुम्हारा अज्ञान तथा मोह दूर हो गया है ?
तात्पर्य
भगवान् अर्जुन के गुरु का काम कर रहे थे | अतएव यह उनका धर्म था कि अर्जुन से पूछते कि उसने पूरी भगवद्गीता ढंग से समझ ली है या नहीं | यदि नहीं समझी है, तो भगवान् उसे फिर से किसी अंश विशेष या पूरी भगवद्गीता बताने को तैयार हैं | वस्तुतः जो भी व्यक्ति कृष्ण जैसे प्रामाणिक गुरु या उनके प्रतिनिधि से भगवद्गीता सुनता है, उसका सारा अज्ञान दूर हो जाता है | भगवद्गीता कोई सामान्य ग्रंथ नहीं, जिसे किसी कवि या उपन्यासकार ने लिखा हो, इसे साक्षात् भगवान् ने कहा है | जो भाग्यशाली व्यक्ति इन उपदेशों को कृष्ण से या उनके किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक प्रतिनिधि से सुनता है, वह अवश्य ही मुक्त पुरुष बनकर अज्ञान के अंधकार को पार कर लेता है |