HI/BG 18.74: Difference between revisions
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Latest revision as of 09:56, 18 August 2020
श्लोक 74
- सञ्जय उवाच
- इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
- संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥७४॥
शब्दार्थ
सञ्जय: उवाच—संजय ने कहा; इति—इस प्रकार; अहम्—मैं; वासुदेवस्य—कृष्ण का; पार्थस्य—तथा अर्जुन का; च—भी; महा-आत्मन:—महात्माओं का; संवादम्—वार्ता; इमम्—यह; अश्रौषम्—सुनी है; अद्भुतम्—अद्भुत; रोम-हर्षणम्—रोंगटे खड़े करने वाली।
अनुवाद
संजय ने कहा – इस प्रकार मैंने कृष्ण तथा अर्जुन इन दोनों महापुरुषों की वार्ता सुनी | और यह सन्देश इतना अद्भुत है कि मेरे शरीर में रोमाञ्च हो रहा है |
तात्पर्य
भगवद्गीता के प्रारम्भ में धृतराष्ट्र ने अपने मन्त्री संजय से पूछा था "कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में क्या हुआ?" गुरु व्यासदेव की कृपा से संजय के हृदय में सारी घटना स्फुरित हुई थी | इस प्रकार उसने युद्धस्थल की विषय वस्तु कह सुनाई थी | यह वार्ता आश्चर्यप्रद थी, क्योंकि इसके पूर्व दो महापुरुषों के बीच ऐसी महत्त्वपूर्ण वार्ता कभी नहीं हुई थी और न भविष्य में पुनः होगी | यह वार्ता इसलिए आश्चर्यप्रद थी, क्योंकि भगवान् भी अपने तथा अपनी शक्तियों के विषय में जीवात्मा अर्जुन से वर्णन कर रहे थे, जो परम भगवद्भक्त था | यदि हम कृष्ण को समझने के लिए अर्जुन का अनुसरण करें तो हमारा जीवन सुखी तथा सफल हो जाए | संजय ने इसका अनुभव किया और जैसे-जैसे उसकी समझ में आता गया उसने यह वार्ता धृतराष्ट्र से कह सुनाई | अब यह निष्कर्ष निकला कि जहाँ-जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन हैं, वहीं-वहीं विजय होती है |