HI/BG 7.24: Difference between revisions

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==== श्लोक 24 ====
==== श्लोक 24 ====


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:''k''
:अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
 
:परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥२४॥
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"हे प्रभु! व्यासदेव तथा नारद जैसे भक्त आपको भगवान् रूप में जानते हैं | मनुष्य विभिन्न वैदिक ग्रंथों को पढ़कर आपके गुण, रूप तथा कार्यों को जान सकता है और इस तरह आपको भगवान् के रूप में समझ सकता है | किन्तु जो लोग रजो तथा तमोगुण के वश में हैं, ऐसे असुर तथा अभक्तगण आपको नहीं समझ पाते | ऐसे अभक्त वेदान्त, उपनिषद् तथा वैदिक ग्रंथों की व्याख्या करने में कितने ही निपुण क्यों न हों, वे भगवान् को समझ नहीं पाते |"
"हे प्रभु! व्यासदेव तथा नारद जैसे भक्त आपको भगवान् रूप में जानते हैं | मनुष्य विभिन्न वैदिक ग्रंथों को पढ़कर आपके गुण, रूप तथा कार्यों को जान सकता है और इस तरह आपको भगवान् के रूप में समझ सकता है | किन्तु जो लोग रजो तथा तमोगुण के वश में हैं, ऐसे असुर तथा अभक्तगण आपको नहीं समझ पाते | ऐसे अभक्त वेदान्त, उपनिषद् तथा वैदिक ग्रंथों की व्याख्या करने में कितने ही निपुण क्यों न हों, वे भगवान् को समझ नहीं पाते |"


ब्रह्मसंहिता में यह बताया गया है कि केवल वेदान्त साहित्य के अध्ययन से भगवान् को नहीं समझा जा सकता | परमपुरुष को केवल भगवत्कृपा से जाना जा सकता है | अतः इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न केवल देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, अपितु वे अभक्त भी जो कृष्णभावनामृत से रहित हैं, जो वेदान्त तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगे रहते हैं, अल्पज्ञ हैं और उनके लिए ईश्र्वर के साकार रूप को समझ पाना सम्भव नहीं है | जो लोग परमसत्य को निर्विशेष करके मानते हैं वे अबुद्धयः बताये गये हैं जिसका अर्थ है, वे लोग जो परमसत्य के परम स्वरूप को नहीं समझते | श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि निर्विशेष ब्रह्म से ही परम अनुभूति प्रारम्भ होती है जो ऊपर उठती हुई अन्तर्यामी परमात्मा तक जाती है, किन्तु परमसत्य की अन्तिम अवस्था भगवान् है | आधुनिक निर्विशेषवादी तो और भी अधिक अल्पज्ञ हैं, क्योंकि वे पूर्वगामी शंकराचार्य का भी अनुसरण नहीं करते जिन्होंने स्पष्ट बताया है कि कृष्ण परमेश्र्वर हैं | अतः निर्विशेषवादी परमसत्य को न जानने के कारण सोचते हैं कि कृष्ण देवकी तथा वासुदेव के पुत्र हैं या कि राजकुमार हैं या कि शक्तिमान जीवात्मा हैं | भगवद्गीता में (९.११) भी इसकी भर्त्सना की गई है | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् – केवल मुर्ख ही मुझे सामान्य पुरुष मानते हैं |
ब्रह्मसंहिता में यह बताया गया है कि केवल वेदान्त साहित्य के अध्ययन से भगवान् को नहीं समझा जा सकता | परमपुरुष को केवल भगवत्कृपा से जाना जा सकता है | अतः इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न केवल देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, अपितु वे अभक्त भी जो कृष्णभावनामृत से रहित हैं, जो वेदान्त तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगे रहते हैं, अल्पज्ञ हैं और उनके लिए ईश्र्वर के साकार रूप को समझ पाना सम्भव नहीं है | जो लोग परमसत्य को निर्विशेष करके मानते हैं वे अबुद्धयः बताये गये हैं जिसका अर्थ है, वे लोग जो परमसत्य के परम स्वरूप को नहीं समझते | श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि निर्विशेष ब्रह्म से ही परम अनुभूति प्रारम्भ होती है जो ऊपर उठती हुई अन्तर्यामी परमात्मा तक जाती है, किन्तु परमसत्य की अन्तिम अवस्था भगवान् है | आधुनिक निर्विशेषवादी तो और भी अधिक अल्पज्ञ हैं, क्योंकि वे पूर्वगामी शंकराचार्य का भी अनुसरण नहीं करते जिन्होंने स्पष्ट बताया है कि कृष्ण परमेश्र्वर हैं | अतः निर्विशेषवादी परमसत्य को न जानने के कारण सोचते हैं कि कृष्ण देवकी तथा वासुदेव के पुत्र हैं या कि राजकुमार हैं या कि शक्तिमान जीवात्मा हैं | भगवद्गीता में '''([[HI/BG 9.11|९.११]])''' भी इसकी भर्त्सना की गई है | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् – केवल मुर्ख ही मुझे सामान्य पुरुष मानते हैं |


तथ्य तो यह है कि कोई बिना भक्ति के तथा कृष्णभावनामृत विकसित किये बिना कृष्ण को नहीं समझ सकता | इसकी पुष्टि भागवत में (१०.१४.२९) हुई है –
तथ्य तो यह है कि कोई बिना भक्ति के तथा कृष्णभावनामृत विकसित किये बिना कृष्ण को नहीं समझ सकता | इसकी पुष्टि भागवत में '''([[Vanisource:SB 10.14.29|१०.१४.२९]])''' हुई है –


अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय प्रसादलेशानुगृहीत एव हि |
अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय प्रसादलेशानुगृहीत एव हि |

Latest revision as of 17:57, 17 September 2020

His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥२४॥

शब्दार्थ

अव्यक्तम्—अप्रकट; व्यक्तिम्—स्वरूप को; आपन्नम्—प्राह्रश्वत हुआ; मन्यन्ते—सोचते हैं; माम्—मुझको; अबुद्धय:—अल्पज्ञानी व्यक्ति; परम्—परम; भावम्—सत्ता; अजानन्त:—बिना जाने; मम—मेरा; अव्ययम्—अनश्वर; अनुत्तमम्—सर्वश्रेष्ठ।

अनुवाद

बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान् कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है | वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते |

तात्पर्य

देवताओं के उपासकों को अल्पज्ञ कहा गया है | भगवान् कृष्ण अपने साकार रूप में यहाँ पर अर्जुन से बातें कर रहे हैं, किन्तु तब भी निर्विशेषवादी अपने अज्ञान के कारण तर्क करते रहते हैं कि परमेश्र्वर का अन्ततः स्वरूप नहीं होता | श्रीरामानुजाचार्य की परम्परा के महान भगवद्भक्त यामुनाचार्य ने इस सम्बन्ध में दो अत्यन्त उपयुक्त श्लोक कहे हैं (स्तोत्र रत्न १२) –

त्वां शीलरूपचरितैः परमप्रकृष्टैः

सत्त्वेन सात्त्विकतया प्रबलैश्र्च शास्त्रैः |

प्रख्यातदैवपरमार्थविदां मतैश्र्च

नैवासुरप्रकृतयः प्रभवन्ति बोद्धुम् ||

"हे प्रभु! व्यासदेव तथा नारद जैसे भक्त आपको भगवान् रूप में जानते हैं | मनुष्य विभिन्न वैदिक ग्रंथों को पढ़कर आपके गुण, रूप तथा कार्यों को जान सकता है और इस तरह आपको भगवान् के रूप में समझ सकता है | किन्तु जो लोग रजो तथा तमोगुण के वश में हैं, ऐसे असुर तथा अभक्तगण आपको नहीं समझ पाते | ऐसे अभक्त वेदान्त, उपनिषद् तथा वैदिक ग्रंथों की व्याख्या करने में कितने ही निपुण क्यों न हों, वे भगवान् को समझ नहीं पाते |"

ब्रह्मसंहिता में यह बताया गया है कि केवल वेदान्त साहित्य के अध्ययन से भगवान् को नहीं समझा जा सकता | परमपुरुष को केवल भगवत्कृपा से जाना जा सकता है | अतः इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि न केवल देवताओं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, अपितु वे अभक्त भी जो कृष्णभावनामृत से रहित हैं, जो वेदान्त तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगे रहते हैं, अल्पज्ञ हैं और उनके लिए ईश्र्वर के साकार रूप को समझ पाना सम्भव नहीं है | जो लोग परमसत्य को निर्विशेष करके मानते हैं वे अबुद्धयः बताये गये हैं जिसका अर्थ है, वे लोग जो परमसत्य के परम स्वरूप को नहीं समझते | श्रीमद्भागवत में बताया गया है कि निर्विशेष ब्रह्म से ही परम अनुभूति प्रारम्भ होती है जो ऊपर उठती हुई अन्तर्यामी परमात्मा तक जाती है, किन्तु परमसत्य की अन्तिम अवस्था भगवान् है | आधुनिक निर्विशेषवादी तो और भी अधिक अल्पज्ञ हैं, क्योंकि वे पूर्वगामी शंकराचार्य का भी अनुसरण नहीं करते जिन्होंने स्पष्ट बताया है कि कृष्ण परमेश्र्वर हैं | अतः निर्विशेषवादी परमसत्य को न जानने के कारण सोचते हैं कि कृष्ण देवकी तथा वासुदेव के पुत्र हैं या कि राजकुमार हैं या कि शक्तिमान जीवात्मा हैं | भगवद्गीता में (९.११) भी इसकी भर्त्सना की गई है | अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् – केवल मुर्ख ही मुझे सामान्य पुरुष मानते हैं |

तथ्य तो यह है कि कोई बिना भक्ति के तथा कृष्णभावनामृत विकसित किये बिना कृष्ण को नहीं समझ सकता | इसकी पुष्टि भागवत में (१०.१४.२९) हुई है –

अथापि ते देव पदाम्बुजद्वय प्रसादलेशानुगृहीत एव हि |

जानाति तत्त्वं भगवन् महिन्मो न चान्य एकोऽपि चिरं विचिन्वन् ||

"हे प्रभु! यदि कोई आपके चरणकमलों की रंचमात्र भी कृपा प्राप्त कर लेता है तो वह आपकी महानता को समझ सकता है | किन्तु जो लोग भगवान् को समझने के लिए मानसिक कल्पना करते हैं वे वेदों का वर्षों तक अध्ययन करके भी नहीं समझ पाते |" कोई न तो मनोधर्म द्वारा, न ही वैदिक साहित्य की व्याख्या द्वार भगवान् कृष्ण या उनके रूप को समझ सकता है | भक्ति के द्वारा की उन्हें समझा जा सकता है | जब मनुष्य हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस महानतम जप से प्रारम्भ करके कृष्णभावनामृत में पूर्णतया तन्मय हो जाता है, तभी वह भगवान् को समझ सकता है | अभक्त निर्विशेषवादी मानते हैं कि भगवान् कृष्ण का शरीर इसी भौतिक प्रकृति का बना है और उनके कार्य, उनका रूप इत्यादि सभी माया हैं | ये निर्विशेषवादी मायावादी कहलाते हैं | ये परमसत्य को नहीं जानते |

बीसवें श्लोक से स्पष्ट है – कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः – जो लोग कामेच्छाओं से अन्धे हैं वे अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं | यह स्वीकार किया गया है कि भगवान् के अतिरिक्त अन्य देवता भी हैं, जिनके अपने-अपने लोक हैं और भगवान् का भी अपना लोक है | जैसा कि तेईसवें श्लोक में कहा गया है – देवान् देवजयो यान्ति भद्भक्ता यान्ति मामपि – देवताओं के उपासक उनके लोकों को जाते हैं और जो कृष्ण के भक्त हैं वे कृष्णलोक को जाते हैं, किन्तु तो भी मुर्ख मायावादी यह मानते हैं कि भगवान् निर्विशेष हैं और ये विभिन्न रूप उन पर ऊपर से थोपे गये हैं | क्या गीता के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि देवता तथा उनके धाम निर्विशेष हैं? स्पष्ट है कि न तो देवतागण, न ही कृष्ण निर्विशेष हैं | वे सभी व्यक्ति हैं | भगवान् कृष्णपरमेश्र्वर हैं, उनका अपना लोक है और देवताओं के भी अपने-अपने लोक हैं |

अतः यह अद्वैतवादी तर्क कि परमसत्य निर्विशेष है और रूप ऊपर से थोपा (आरोपित) हुआ है, सत्य नहीं उतरता | यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि यह ऊपर से थोपा हुआनहीं है | भगवद्गीता से हम स्पष्टतया समझ सकते हैं कि देवताओं के रूप तथा परमेश्र्वर का स्वरूप साथ-साथ विद्यमान हैं और भगवान् कृष्ण सच्चिदानन्द रूप हैं | वेद भी पुष्टि करते हैं कि परमसत्य आनन्दमयोऽभ्यासात्– अर्थात् वे स्वभाव से ही आनन्दमय हैं और वे अनन्त शुभ गुणों के आगार हैं | गीता में भगवान् कहते हैं कि यद्यपि वे अज (अजन्मा) हैं, तो भी वे प्रकट होते हैं | भगवद्गीता से हम इस सारे तथ्यों को जान सकते हैं | अतः हम यह नहीं समझ पाते कि भगवान् किस तरह निर्विशेष हैं? जहाँ तक गीता के कथन हैं, उनके अनुसार निर्विशेषवादी अद्वैतवादियों का यह आरोपित सिद्धान्त मिथ्या है | यहाँ स्पष्ट है कि परमसत्य भगवान् कृष्ण के रूप और व्यक्तित्व दोनों हैं |