HI/Prabhupada 0707 - जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं: Difference between revisions

(Created page with "<!-- BEGIN CATEGORY LIST --> Category:1080 Hindi Pages with Videos Category:Prabhupada 0707 - in all Languages Category:HI-Quotes - 1975 Category:HI-Quotes - Lec...")
 
(Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
 
Line 7: Line 7:
[[Category:HI-Quotes - in India, Bombay]]
[[Category:HI-Quotes - in India, Bombay]]
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- END CATEGORY LIST -->
<!-- BEGIN NAVIGATION BAR -- DO NOT EDIT OR REMOVE -->
{{1080 videos navigation - All Languages|Hindi|HI/Prabhupada 0706 - असली शरीर भीतर है|0706|HI/Prabhupada 0708 - मछली के जीवन और मेरे जीवन के बीच का अंतर|0708}}
<!-- END NAVIGATION BAR -->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<!-- BEGIN ORIGINAL VANIQUOTES PAGE LINK-->
<div class="center">
<div class="center">
Line 15: Line 18:


<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
<!-- BEGIN VIDEO LINK -->
{{youtube_right|Vt30evGvhnY|जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त - वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं - Prabhupāda 0707}}
{{youtube_right|WMzXNf2Z6Cw|जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं - Prabhupāda 0707}}
<!-- END VIDEO LINK -->
<!-- END VIDEO LINK -->


<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<!-- BEGIN AUDIO LINK (from English page -->
<mp3player>File:750107SB-BOMBAY_clip1.mp3</mp3player>
<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/clip/750107SB-BOMBAY_clip1.mp3</mp3player>
<!-- END AUDIO LINK -->
<!-- END AUDIO LINK -->


Line 27: Line 30:


<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
<!-- BEGIN TRANSLATED TEXT (from DotSub) -->
आध्यात्मिक दुनिया है । भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं कि: परस तस्मात तू भाव: अन्यः ([[Vanisource:BG 8.20|भ गी ८।२०]]) "एक और भाव है, प्रकृति ।" वह प्रकृति क्या है? सर्वषु नश्यत्सु न विनश्यति: "जब भौतिक दुनिया, यह लौकिक अभिव्यक्ति, अद्भुत दुनिया, खत्म हो जाएगा, वह रहेगा । यह समाप्त नहीं होगा । " कई उदाहरण मौजूद हैं । जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा की तरह । कभी कभी आप रेगिस्तान में पानी का विशाल समूह देखते हैं । जानवर पानी के पीछे भागता है, प्यास होने के कारण, लेकिन पानी नहीं है । इसलिए पशु मर जाता है । लेकिन इंसान को जानवर की तरह नहीं होना चाहिए । उन्हे अपना मानक उठाना चाहिए । उन्हें विशेष चेतना मिली है । वे अपने मानक को बढ़ा सकते हैं भगवान द्वारा दिए गए इन साहित्यों को, वैदिक साहित्य को समझ कर । व्यासदेव कृष्ण का अवतार हैं, तो उन्होंने हमें वैदिक साहित्य दी है । इसलिए उनका नाम वेदव्यास है, भगवान के अवतार, वेदव्यास । महा-मुनि-कृते किम वा परै: अटकलों की कोई जरूरत नहीं है । केवल परम्परा उत्तराधिकार में व्यासदेव का अनुसरण करें । व्यासदेव के शिष्य नारद मुनि हैं । नारद मुनि के शिष्य व्यासदेव हैं । तो इस परम्परा प्रणाली में, अगर हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो यह सही ज्ञान है । इसलिए हम इसे स्वीकार करना होगा । निश्चयात्मिका ।  
आध्यात्मिक दुनिया है । भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं कि: परस तस्मात तु भाव: अन्यः ([[HI/BG 8.20|भ.गी. ८.२०]]) "एक और भाव है, प्रकृति ।" वह प्रकृति क्या है? सर्वषु नश्यत्सु न विनश्यति: "जब भौतिक दुनिया, यह लौकिक अभिव्यक्ति, अद्भुत दुनिया, खत्म हो जाएगी, वह रहेगा । यह समाप्त नहीं होगा ।" कई उदाहरण मौजूद हैं । जैसे रेगिस्तान में मृगजल की तरह ।  


इसलिए रूपा गोस्वामी कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन को उन्नत किया जा सकता है । पहला सिद्धांत है उत्साह । उत्साहात । उत्साह का मतलब है जोश । "हाँ, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) । मैं यह स्वीकार करता हूँ और इस सिद्धांत पर उत्साह से काम करूँगा, जैसा कृष्ण कहते हैं ।" कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी माम नमस्कुरु ([[Vanisource:BG 18.65|भ ी १८।६५]]) और हमें यह करना होगा, उत्साह के साथ इसे लागू करना होगा । "हाँ, मैं हमेशा कृष्ण के बारे में सोचूँ्गा ।" मन-मना: ।. कृष्ण सीधा कहते हैं । मन मना भव मद भक्त: "तुम केवल मेरे भक्त बन जाअो ।" इसलिए हम उत्साहित होना चाहिए, "हाँ, मैं कृष्ण का भक्त बनूँ्गा ।" मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी । कृष्ण कहते हैं, "मेरी पूजा करो", तो हमें बहुत उत्साहित होना चाहिए कृष्ण की पूजा करने के लिए मंगल-अारत्रिक करना, सुबह जल्दी उठना । ये सभी उत्साह हैं, उत्साह । जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं । केवल सो कर , वे नहीं कर सकते हैं । हमें बहुत, बहुत उत्साहित होना चाहिए, सकारात्मक । उत्साहाद धैर्यात । धैर्य का मतलब है सब्र । एसा नहीं कि " क्योंकि मैंने बड़े उत्साह के साथ भक्ति सेवा शुरू की है..... तो तुम पूणर्ता के मंच पर पहले से ही हो, लेकिन अगर तुम अधीर हो जाते हो कि, "क्यों मैं पूर्ण नहीं हो रहा हूँ? कभी कभी क्यों माया मुझे लात मार रही है? " हाँ । यह स्वभाविक है । यह चलता रहेगा । यह बंद हो जाएगा । निश्चयात । धैर्यात, निश्चयात , कि "जब कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) अब मैंने सब कुछ छोड़ दिया है । मेरा कोई अन्य व्यावसायिक कर्तव्य नहीं है । केवल कृष्ण की सेवा के लिए । तो जब मैंने यह अपना लिया है, तब निश्चय, कृष्ण निश्चित रूप से मुझे सुरक्षा देंगे ।" इसे निश्चय कहा जाता है । निराश मत हो । कृष्ण एक झूठे वक्ता नहीं हैं । वे कहते हैं, अहम् त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि ।
कभी कभी आप रेगिस्तान में पानी का विशाल समूह देखते हैं । जानवर पानी के पीछे भागता है, प्यासा होने के कारण, लेकिन पानी नहीं है । इसलिए पशु मर जाता है । लेकिन इंसान को जानवर की तरह नहीं होना चाहिए । उन्हे अपना मानक उठाना चाहिए । उन्हें विशेष चेतना मिली है । वे अपने मानक को बढ़ा सकते हैं भगवान द्वारा दिए गए इन साहित्यों को, वैदिक साहित्य को समझ कर । व्यासदेव कृष्ण के अवतार हैं, तो उन्होंने हमें वैदिक साहित्य दिया है । इसलिए उनका नाम वेदव्यास है, भगवान के अवतार, वेदव्यास । महा-मुनि-कृते किम वा परै: | अटकलों की कोई जरूरत नहीं है । केवल परम्परा उत्तराधिकार में व्यासदेव का अनुसरण करें । व्यासदेव के शिष्य नारद मुनि हैं । नारद मुनि के शिष्य व्यासदेव हैं । तो इस परम्परा प्रणाली में, अगर हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो यह सही ज्ञान है । इसलिए हमें इसे स्वीकार करना होगा । निश्चयात्मिका ।
 
इसलिए रूप गोस्वामी कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन को उन्नत किया जा सकता है । पहला सिद्धांत है उत्साह । उत्साहात । उत्साह का मतलब है जोश । "हाँ, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) । मैं यह स्वीकार करता हूँ और इस सिद्धांत पर उत्साह से काम करूँगा, जैसा कृष्ण कहते हैं ।" कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु ([[HI/BG 18.65|भ.गी. १८.६५]]), और हमें यह करना होगा, उत्साह के साथ इसे लागू करना होगा । "हाँ, मैं हमेशा कृष्ण के बारे में सोचूंगा ।" मन-मना: । कृष्ण सीधा कहते हैं । मन मना भव मद-भक्त:, "तुम केवल मेरे भक्त बन जाअो ।" इसलिए हमें उत्साहित होना चाहिए, "हाँ, मैं कृष्ण का भक्त बनूँगा ।" मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी ।  
 
कृष्ण कहते हैं, "मेरी पूजा करो", तो हमें बहुत उत्साहित होना चाहिए कृष्ण की पूजा करने के लिए, मंगल-अारत्रिक करना, सुबह जल्दी उठना । ये सभी उत्साह हैं, उत्साह । जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं । केवल सो कर, वे नहीं कर सकते हैं । हमें बहुत, बहुत उत्साहित होना चाहिए, सकारात्मक । उत्साहाद धैर्यात । धैर्य का मतलब है धीरज, एसा नहीं कि "क्योंकि मैंने बड़े उत्साह के साथ भक्ति सेवा शुरू की है..." तो तुम पूणर्ता के मंच पर पहले से ही हो, लेकिन अगर तुम अधीर हो जाते हो कि, "क्यों मैं पूर्ण नहीं हो रहा हूँ ? कभी कभी क्यों माया मुझे लात मार रही है ?" हाँ । यह स्वभाविक है । यह चलता रहेगा । यह बंद हो जाएगा ।  
 
निश्चयात । धैर्यात, निश्चयात, की "जब कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]), अब मैंने सब कुछ छोड़ दिया है । मेरा कोई अन्य व्यावसायिक कर्तव्य नहीं है । केवल कृष्ण की सेवा करना । तो जब मैंने यह अपना लिया है, फिर निश्चय, कृष्ण निश्चित रूप से मुझे सुरक्षा देंगे ।" इसे निश्चय कहा जाता है । निराश मत हो । कृष्ण एक झूठे वक्ता नहीं हैं । वे कहते हैं, अहम त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि ।  
<!-- END TRANSLATED TEXT -->
<!-- END TRANSLATED TEXT -->

Latest revision as of 19:09, 17 September 2020



Lecture on SB 3.26.30 -- Bombay, January 7, 1975

आध्यात्मिक दुनिया है । भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं कि: परस तस्मात तु भाव: अन्यः (भ.गी. ८.२०) "एक और भाव है, प्रकृति ।" वह प्रकृति क्या है? सर्वषु नश्यत्सु न विनश्यति: "जब भौतिक दुनिया, यह लौकिक अभिव्यक्ति, अद्भुत दुनिया, खत्म हो जाएगी, वह रहेगा । यह समाप्त नहीं होगा ।" कई उदाहरण मौजूद हैं । जैसे रेगिस्तान में मृगजल की तरह ।

कभी कभी आप रेगिस्तान में पानी का विशाल समूह देखते हैं । जानवर पानी के पीछे भागता है, प्यासा होने के कारण, लेकिन पानी नहीं है । इसलिए पशु मर जाता है । लेकिन इंसान को जानवर की तरह नहीं होना चाहिए । उन्हे अपना मानक उठाना चाहिए । उन्हें विशेष चेतना मिली है । वे अपने मानक को बढ़ा सकते हैं भगवान द्वारा दिए गए इन साहित्यों को, वैदिक साहित्य को समझ कर । व्यासदेव कृष्ण के अवतार हैं, तो उन्होंने हमें वैदिक साहित्य दिया है । इसलिए उनका नाम वेदव्यास है, भगवान के अवतार, वेदव्यास । महा-मुनि-कृते किम वा परै: | अटकलों की कोई जरूरत नहीं है । केवल परम्परा उत्तराधिकार में व्यासदेव का अनुसरण करें । व्यासदेव के शिष्य नारद मुनि हैं । नारद मुनि के शिष्य व्यासदेव हैं । तो इस परम्परा प्रणाली में, अगर हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो यह सही ज्ञान है । इसलिए हमें इसे स्वीकार करना होगा । निश्चयात्मिका ।

इसलिए रूप गोस्वामी कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन को उन्नत किया जा सकता है । पहला सिद्धांत है उत्साह । उत्साहात । उत्साह का मतलब है जोश । "हाँ, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) । मैं यह स्वीकार करता हूँ और इस सिद्धांत पर उत्साह से काम करूँगा, जैसा कृष्ण कहते हैं ।" कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु (भ.गी. १८.६५), और हमें यह करना होगा, उत्साह के साथ इसे लागू करना होगा । "हाँ, मैं हमेशा कृष्ण के बारे में सोचूंगा ।" मन-मना: । कृष्ण सीधा कहते हैं । मन मना भव मद-भक्त:, "तुम केवल मेरे भक्त बन जाअो ।" इसलिए हमें उत्साहित होना चाहिए, "हाँ, मैं कृष्ण का भक्त बनूँगा ।" मन मना भव मद-भक्तो मद्याजी ।

कृष्ण कहते हैं, "मेरी पूजा करो", तो हमें बहुत उत्साहित होना चाहिए कृष्ण की पूजा करने के लिए, मंगल-अारत्रिक करना, सुबह जल्दी उठना । ये सभी उत्साह हैं, उत्साह । जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं । केवल सो कर, वे नहीं कर सकते हैं । हमें बहुत, बहुत उत्साहित होना चाहिए, सकारात्मक । उत्साहाद धैर्यात । धैर्य का मतलब है धीरज, एसा नहीं कि "क्योंकि मैंने बड़े उत्साह के साथ भक्ति सेवा शुरू की है..." तो तुम पूणर्ता के मंच पर पहले से ही हो, लेकिन अगर तुम अधीर हो जाते हो कि, "क्यों मैं पूर्ण नहीं हो रहा हूँ ? कभी कभी क्यों माया मुझे लात मार रही है ?" हाँ । यह स्वभाविक है । यह चलता रहेगा । यह बंद हो जाएगा ।

निश्चयात । धैर्यात, निश्चयात, की "जब कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६), अब मैंने सब कुछ छोड़ दिया है । मेरा कोई अन्य व्यावसायिक कर्तव्य नहीं है । केवल कृष्ण की सेवा करना । तो जब मैंने यह अपना लिया है, फिर निश्चय, कृष्ण निश्चित रूप से मुझे सुरक्षा देंगे ।" इसे निश्चय कहा जाता है । निराश मत हो । कृष्ण एक झूठे वक्ता नहीं हैं । वे कहते हैं, अहम त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि ।