HI/470713 - राजा मोहेन्द्र प्रताप को लिखित पत्र, कानपुर: Difference between revisions

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Camp: Newatiya House<br />
कैम्प: नेवतिया हाऊज़<br />
56/57, Satranji Mohal, Cawnpore D/12/7/47 (ed: July 13, 1947)
56/57, सतरंजी महल, कानपुर दिनांक 13/7/47


From: - Abhay Charan De<br />
प्रेषक: - अभय चरण डे<br />
Editor and Founder "Back to Godhead"<br />
"बैक टू गॉडहेड" पत्रिका के संस्थापक व संपादक<br />
No.6, Sitakanto Banerjee Lane, Calcutta.
नं.6, सीताकांत बैनरजी लेन, कलकत्ता


Raja Mohendra Pratap<br />
राजा मोहेन्द्र प्रताप<br />
World Federation<br />
विश्व संस्थान<br />
Prem MohaVidyalaya<br />
प्रेम मोह विद्यालय<br />
P.O. Brindaban.
पोस्ट ऑफिस बृंदाबन


Estimado Raja Sahib,
प्रिय राजा साहिब,


Continuando con mi última tarjeta, te informo que he terminado la lectura de tu libro Religión de Amor. En mi opinión toda la tesis está basada en la filosofía del panteísmo y el enfoque utilizado es el servicio a la humanidad. La religión del amor es la idea religiosa verdadera, pero si el único enfoque utilizado es el servicio a la humanidad, entonces el proceso se convierte en imperfecto, parcial y poco científico.
मेरे पोस्ट कार्ड में बताई गई बात के आगे, में आप को बताना चाहुंगा कि मैंने आपकी पुस्तक प्रेम का धर्म पूरी पढ़ ली है। मेरे मानना है कि आपका पूरा निबंध सर्वेश्वरवाद पर आधारित है, जिसका रास्ता मानवता की सेवाओं द्वारा दर्शाया गया है। प्रेम का धर्म ही वास्तविक धर्म है, किन्तु यदि उसे मानवता की सेवा द्वारा प्राप्त करने का प्रयास किया जाए, तो पूरी प्रक्रिया अपूर्ण, अधूरी एवं अवैज्ञानिक हो जाती है।


Como dices las olas de las creaciones son los diferentes aspectos, ¿por qué un tipo particular de olas, es decir las de la humanidad, deben ser seleccionadas de manera parcial para ofrecerles servicio, y por qué a otros tipos de olas tales como las bestias o pájaros, las plantas y las piedras no se les puede ofrecer un tipo de servicio similar? En ese caso ¿cómo puedes decir que la adoración de una piedra es pecaminoso mientras que a un hombre que es más que una piedra debería considerarse como el objeto del amor? Estas son algunas de las preguntas que surgen de un estudio crítico de tu libro.
आप कहते हैं कि सृष्टि की अलग-अलग लहरें उसके अलग-अलग अंग हैं। पिर क्यों उनमें से मानवता रूपी एक प्रकार की लहर को ही अपूर्ण रूप से चुनकर उसे सेवाऐं अर्पित की जाएं जबकि अन्य प्रकार की लहरों को, जैसे पशु-पक्षी, पौधेऔर पत्थरों को भी ये सेवाऐं दी जाएं? ऐसे में आप यह कैसे कह सकते हैं कि एक पत्थर की पूजा पापपूर्ण है जबकि उस पत्थर से अधिक जो मनुष्य है वह प्रेम करने योग्य है? आपकी पुस्तक की समालोचना करने पर ऐसे प्रश्न उठते हैं।


Si lo deseas podemos discutir acerca de ello y mi opinión es que tu enfoque es parcial y poco científico. No hay duda en aceptar el principio de Religión del Amor debido a que la Verdad Absoluta es, como sabemos, Dios Quien es sat, cit y ananda. Que sin ananda no podría existir el amor es una verdad aceptada. Tu bosquejo de la sociedad, la amistad y el amor entre los seres humanos están basados en esta única porción ananda pero has evitado las otras porciones de eternidad y cognición del Alma Completa. Así el enfoque es parcial y poco científico.
यदि आप चाहें तो मैं इस बारे में चर्चा प्रारम्भ कर सकता हूँ और मेरी धारणा में आपका प्रस्ताव अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक है। क्योंकि हम जानते हैं कि परम सत्य तो सत्-चित्-आनन्द भगवान हैं, इसलिए प्रेम के धर्म का सिद्धान्त स्वीकार करने में हमे काई संकोच नहीं है। यह मानी हुई बात है कि आनन्द के बिना कोई प्रेम नहीं हो सकता। मनुष्यों के समाज, मैत्री और प्रेम की आपकी रूपरेखा आनन्द पर आधारित है। किन्तु आपने परमात्मा भगवान के शाश्वत व पूर्णज्ञान रूपी भाग को अनदेखा छोड़ दिया है। इसलिए यह प्रक्रिया अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक है। वास्तविक प्रेम का धर्म तो भगवद्गीता में पूर्ण रूपसे समझाया गया है। जब हम प्रेम की बात करते हैं तो ज़ाहिर है की प्रेमी और प्रेम का लक्ष्य, इन दोनों का मौजूद होना ज़रूरी है। इस जगत में हम देखते हैं कि प्रेमी और प्रम का लक्ष्य दोनों एक दूसरे के लिए ठग एवं ठगे जाने के संबंध में हैं। यह हमारा अनुभव है। किन्तु प्रेम का लक्ष्य परमात्मा होने पर प्रेमी और प्रेम के लक्ष्य का द्वैत समाप्त हो जाता है। ऐसे में प्रेमियों की शास्वत अवस्था और ज्ञान एकाएक गायब हो जाते हैं। ऐसे कई प्रश्न उठते हैं, जिन्हें आपकी धार्मिक विचारधारा को संवारने के लिए आपके समक्ष रखा जा सकता है।


La verdadera religión del amor está perfectamente inculcada en el Bhagavad-gita. Cuando hablamos del amor debe existir tanto el objeto del amor como el amante. Aquí en este mundo encontramos que el objeto del amor y el amante son ambos el engañador y el engañado en sus tratos recíprocos. Esa es nuestra experiencia. Pero en el fin último del Alma Completa, la existencia dual del objeto del amor y el amado pierden su identidad. En ese caso la eternidad y la cognición del amado y el amante se desvanecen de manera inmediata. Así surgen muchas preguntas que se podrían presentar para más discusiones para que puedas ajustar tus ideas de religión.
इसके अलावा भी, आपने अपने विचारों के साथ कोई प्रमाणिक उद्धरण प्रस्तुत नहीं किए हैं। अर्थात् , ये कमोबेश आपके अपने मतों पर आधारित हैं। यदि अलग-अलग व्यक्ति धर्म-तत्व के संदर्भ में अपने-अपने मत प्रस्तुत करने लगें तो किसकी बात मानी जाएऔर किसकी नहीं?  इसीलिए दृष्टिकोण प्रामाणिक, वैज्ञानिक एवं सर्वव्यापक होने आवश्यक हैं। आपका दृषटिकोण इन सब ज़रूरी मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। यहीं मेरी मुख्य असहमति है। यदि आपके पास समय हो तो जहां तक हो सके अपने मतभेद की यथार्थता सिद्ध करने में मुझे हर्ष होगा। मेरे तर्कों का आधार होगी भगवद्गीता, जो सर्वाधिक प्रामाणिक, वैज्ञानिक एवं सर्वव्यापक है। भगवद्गीता के निष्कर्षों को संक्षिप्त में कुछ इस प्रकार कहा जा सकता है –


Además no has citado ninguna autoridad para todas tus afirmaciones. Así que es más o menos dogmático. Si hombres diferentes presentan visiones dogmáticas diferentes acerca de la religión y sus bases, ¿a quién se debe aceptar y a quién no? Por lo tanto el planteamiento debe ser autoritativo, científico y universal. Tus bosquejos no se ajustan a todas estas cosas necesarias. Ese es mi argumento principal.
1) ईश्वर एक हैं। वे सब में हैं और सब कुछ उनमें है।


Si tienes tiempo para discutirlo, estaré muy feliz de dar sustancia a mis argumentos tanto como sea posible. Mi base para los argumentos será el Bhagavad-gita; que es la más autoritativa, científica y universal. Para resumir las conclusiones del Bhagavad-gita; permíteme decir que,
2) भगवान को पराभौतिक दिव्य सेवा अर्पण करने से जो कुछ अस्तित्व में है उस सब की तुष्टि हो जाती है। ठीक उस प्रकार जैसे, वृक्ष की जड़ को सींचने से जल उसकी सारी टहनियों और अनेक पत्तों तक पंहुच जाता है या जैसे पेट को भोजन देने से सारी इन्द्रियों और अंगों तक पोषण पंहुच जाता है।


1. Dios es uno y todo está en Él y Él está en todo.
3) संपूर्ण अस्तित्व की सेवा करने मात्र से अंश की तुष्टि स्वतः हो जाती है, किन्तु अंश की सेवा संपूर्ण की सेवा आंशिक होती है या फिर बिल्कुल ही नहीं।


2. Rendir servicio trascendental a Dios es servir a todo lo que es, así como regar la raíz de un árbol es regar las diferentes ramas y las numerosas hojas del árbol o suplir comida al estómago es vitalizar todos los sentidos y los órganos de los sentidos del cuerpo.
4) संपूर्ण एवं अंश के शाश्वत संबंध के कारण, अंश का शाश्वत धर्म संपूर्ण की सेवा है।


3. Las partes se sirven de manera automática cuando el Todo es servido, pero cuando se les sirve a las partes se le sirve al Todo parcialmente o no se le sirve del todo.
5) सभी अंशों से सेवा प्राप्त करने वाले हैं – सत्चिद्दानन्द विग्रह भगवान। अर्थात सर्वाकर्षक, सर्वज्ञ एवं सर्वानन्दमय शाश्वत पुरुष। अपने अंशों की क्षुद्र क्षमता द्वारा भी समझे जा सकने हेतु वे स्वयं को अपनी बहिरंगा माया शक्ति का प्रयोग किये बिना, केवल अंतरंगा शक्ति के माध्यम से प्रकाशित कर सकते हैं। वस्तुतः वे न केवल महत्तम से भी बड़े हैं, बल्कि न्यूनतम से छोटे भी हैं। यह उनका विशेषाधिकार है।


4. Las partes y el Todo estando relacionadas eternamente, es el deber eterno de las partes realizar servicio al Todo.
6) उनका उत्तम साक्षात्कार तब किया जा सकता है जब वे अपनी अहैतुकी कृपा से, इस भौतिक जगत में अवतीर्ण को सहमत होते हैं। किन्तु वे कभी भी अनुभव पर आधारित चिंतन करने वाले दार्शनिकों की अटकलों द्वारा नहीं जाने जा सकते, फिर वे अटकलें कितनी ही व्यवस्थित या लंबे अनुभव पर आधारित क्यों न हों।


5. Como recipiente del servicio de las partes, Dios es sat-cit-ananda vigraha i.e. el Cogniciente todo atractivo y todo-bienaventurado Personalidad eterna. Él se puede revelar a sí mismo por Su propia potencia sin ninguna ayuda de la potencia externa llamada maya con el fin de ser cognoscible por la potencia limitada de las partes y como tal Él es no solamente el más grande de todo sino también el más pequeño de todo. Esa es Su prerrogativa.
7) श्री कृष्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं और वे ही सभी कारणों के पारमार्थिक कारण हैं, जैसा की भगवद्गीता में तथ्यों एवं आंकड़ों द्वारा वर्णित है। किन्तु वे स्वयं को अनुभव पर आधारित दार्शनिकों की ऐन्द्रिक अटकलों के समक्ष प्रकाशित न होने के सर्वाधिकार सुरक्षित रखते हैं।


6. A Él se le puede entender mejor cuando Él por Su misericordia sin causa acepta descender a este mundo mortal pero a Él nunca se le puede entender por especulaciones parciales de los filósofos empíricos sin importar lo sistemáticos o longevos que puedan ser.
8) इसलिए जो कोई भी भगवान को वस्तुतः जानना चाहता हो, उसे चाहिए कि वह भगवान की शरण में आए। क्योंकि अणु द्वारा विभु को जानने की यही वास्तविक प्रक्रिया है।


7. Sri Krishna es la Personalidad de Dios y es la Causa Summum Bonum de todas las Causas demostrado en las afirmaciones del Bhagavad-gita; pero Él se reserva el derecho de no estar expuesto a las especulaciones sensuales de los filósofos empíricos.
9) प्रेम के धर्म के द्वारा कृष्ण सहज ही मिल जाते हैं। अर्थात् प्रेम एवं सेवा द्वारा जैसा कि ब्रजबालाओं ने किया, जिनके पास न तो कोई ज्ञान था और ना ही किसी ऊंचे कुल में जन्म लेने का गौरव।


8. Uno debe por lo tanto rendirse a Él si uno quiere conocerLo tal como es y ese es el verdadero proceso para acercarse al Infinito por parte de los infinitesimales.
10) इसीलिए, मानवता को दी जाने वाली सर्वोच्च सेवा है, सभी देश, काल एवं पात्र हेतु भगवद्गीता के दर्शन व धर्म का प्रचार।


9. Sri Krishna es muy fácilmente accesible mediante la religión del amor i.e. por amor y servicio como fue concebido por las damiselas de Vraja quienes prácticamente no tenían educación y ni mucho menos nacimiento en alta cuna.
मैं आशा करता हूँ कि आप मुझसे सहमत हों और मानवता की इस प्रकार से सेवा करने के प्रयास में मेरे साथ सम्मिलित होंगे।


10. El servicio más elevado que se le puede prestar a la humanidad es, por lo tanto, predicar la filosofía y la religión del Bhagavad-gita; en todo momento, todo lugar y para toda la gente.
निष्ठापूर्वक आपका,<br/>


Espero que estés de acuerdo conmigo y así realizar un esfuerzo combinado en esta dirección para el beneficio de la humanidad.
''(हस्ताक्षरित)''<br/>


Tuyo sinceramente,
अभय चरण डे




''[signed]''
सेवा मेंः राजा मोहेन्द्र प्रताप<br />
 
विश्व संस्थान<br />
Abhay Charan De.
प्रेम मोह विद्यालय<br />
 
पोस्ट ऑफिस बृंदाबन
To: Raja Mohendra Pratap<br />
World Federation<br />
Prem MohaVidyalaya<br />
P.O. Brindaban.

Latest revision as of 06:11, 20 April 2022

Letter to Raja Mohendra Pratap (page 1 of 2)
Letter to Raja Mohendra Pratap (page 1 (cont) of 2)
Letter to Raja Mohendra Pratap (page 2 of 2)


कैम्प: नेवतिया हाऊज़
56/57, सतरंजी महल, कानपुर दिनांक 13/7/47

प्रेषक: - अभय चरण डे
"बैक टू गॉडहेड" पत्रिका के संस्थापक व संपादक
नं.6, सीताकांत बैनरजी लेन, कलकत्ता

राजा मोहेन्द्र प्रताप
विश्व संस्थान
प्रेम मोह विद्यालय
पोस्ट ऑफिस बृंदाबन

प्रिय राजा साहिब,

मेरे पोस्ट कार्ड में बताई गई बात के आगे, में आप को बताना चाहुंगा कि मैंने आपकी पुस्तक प्रेम का धर्म पूरी पढ़ ली है। मेरे मानना है कि आपका पूरा निबंध सर्वेश्वरवाद पर आधारित है, जिसका रास्ता मानवता की सेवाओं द्वारा दर्शाया गया है। प्रेम का धर्म ही वास्तविक धर्म है, किन्तु यदि उसे मानवता की सेवा द्वारा प्राप्त करने का प्रयास किया जाए, तो पूरी प्रक्रिया अपूर्ण, अधूरी एवं अवैज्ञानिक हो जाती है।

आप कहते हैं कि सृष्टि की अलग-अलग लहरें उसके अलग-अलग अंग हैं। पिर क्यों उनमें से मानवता रूपी एक प्रकार की लहर को ही अपूर्ण रूप से चुनकर उसे सेवाऐं अर्पित की जाएं जबकि अन्य प्रकार की लहरों को, जैसे पशु-पक्षी, पौधेऔर पत्थरों को भी ये सेवाऐं दी जाएं? ऐसे में आप यह कैसे कह सकते हैं कि एक पत्थर की पूजा पापपूर्ण है जबकि उस पत्थर से अधिक जो मनुष्य है वह प्रेम करने योग्य है? आपकी पुस्तक की समालोचना करने पर ऐसे प्रश्न उठते हैं।

यदि आप चाहें तो मैं इस बारे में चर्चा प्रारम्भ कर सकता हूँ और मेरी धारणा में आपका प्रस्ताव अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक है। क्योंकि हम जानते हैं कि परम सत्य तो सत्-चित्-आनन्द भगवान हैं, इसलिए प्रेम के धर्म का सिद्धान्त स्वीकार करने में हमे काई संकोच नहीं है। यह मानी हुई बात है कि आनन्द के बिना कोई प्रेम नहीं हो सकता। मनुष्यों के समाज, मैत्री और प्रेम की आपकी रूपरेखा आनन्द पर आधारित है। किन्तु आपने परमात्मा भगवान के शाश्वत व पूर्णज्ञान रूपी भाग को अनदेखा छोड़ दिया है। इसलिए यह प्रक्रिया अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक है। वास्तविक प्रेम का धर्म तो भगवद्गीता में पूर्ण रूपसे समझाया गया है। जब हम प्रेम की बात करते हैं तो ज़ाहिर है की प्रेमी और प्रेम का लक्ष्य, इन दोनों का मौजूद होना ज़रूरी है। इस जगत में हम देखते हैं कि प्रेमी और प्रम का लक्ष्य दोनों एक दूसरे के लिए ठग एवं ठगे जाने के संबंध में हैं। यह हमारा अनुभव है। किन्तु प्रेम का लक्ष्य परमात्मा होने पर प्रेमी और प्रेम के लक्ष्य का द्वैत समाप्त हो जाता है। ऐसे में प्रेमियों की शास्वत अवस्था और ज्ञान एकाएक गायब हो जाते हैं। ऐसे कई प्रश्न उठते हैं, जिन्हें आपकी धार्मिक विचारधारा को संवारने के लिए आपके समक्ष रखा जा सकता है।

इसके अलावा भी, आपने अपने विचारों के साथ कोई प्रमाणिक उद्धरण प्रस्तुत नहीं किए हैं। अर्थात् , ये कमोबेश आपके अपने मतों पर आधारित हैं। यदि अलग-अलग व्यक्ति धर्म-तत्व के संदर्भ में अपने-अपने मत प्रस्तुत करने लगें तो किसकी बात मानी जाएऔर किसकी नहीं? इसीलिए दृष्टिकोण प्रामाणिक, वैज्ञानिक एवं सर्वव्यापक होने आवश्यक हैं। आपका दृषटिकोण इन सब ज़रूरी मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। यहीं मेरी मुख्य असहमति है। यदि आपके पास समय हो तो जहां तक हो सके अपने मतभेद की यथार्थता सिद्ध करने में मुझे हर्ष होगा। मेरे तर्कों का आधार होगी भगवद्गीता, जो सर्वाधिक प्रामाणिक, वैज्ञानिक एवं सर्वव्यापक है। भगवद्गीता के निष्कर्षों को संक्षिप्त में कुछ इस प्रकार कहा जा सकता है –

1) ईश्वर एक हैं। वे सब में हैं और सब कुछ उनमें है।

2) भगवान को पराभौतिक दिव्य सेवा अर्पण करने से जो कुछ अस्तित्व में है उस सब की तुष्टि हो जाती है। ठीक उस प्रकार जैसे, वृक्ष की जड़ को सींचने से जल उसकी सारी टहनियों और अनेक पत्तों तक पंहुच जाता है या जैसे पेट को भोजन देने से सारी इन्द्रियों और अंगों तक पोषण पंहुच जाता है।

3) संपूर्ण अस्तित्व की सेवा करने मात्र से अंश की तुष्टि स्वतः हो जाती है, किन्तु अंश की सेवा संपूर्ण की सेवा आंशिक होती है या फिर बिल्कुल ही नहीं।

4) संपूर्ण एवं अंश के शाश्वत संबंध के कारण, अंश का शाश्वत धर्म संपूर्ण की सेवा है।

5) सभी अंशों से सेवा प्राप्त करने वाले हैं – सत्चिद्दानन्द विग्रह भगवान। अर्थात सर्वाकर्षक, सर्वज्ञ एवं सर्वानन्दमय शाश्वत पुरुष। अपने अंशों की क्षुद्र क्षमता द्वारा भी समझे जा सकने हेतु वे स्वयं को अपनी बहिरंगा माया शक्ति का प्रयोग किये बिना, केवल अंतरंगा शक्ति के माध्यम से प्रकाशित कर सकते हैं। वस्तुतः वे न केवल महत्तम से भी बड़े हैं, बल्कि न्यूनतम से छोटे भी हैं। यह उनका विशेषाधिकार है।

6) उनका उत्तम साक्षात्कार तब किया जा सकता है जब वे अपनी अहैतुकी कृपा से, इस भौतिक जगत में अवतीर्ण को सहमत होते हैं। किन्तु वे कभी भी अनुभव पर आधारित चिंतन करने वाले दार्शनिकों की अटकलों द्वारा नहीं जाने जा सकते, फिर वे अटकलें कितनी ही व्यवस्थित या लंबे अनुभव पर आधारित क्यों न हों।

7) श्री कृष्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं और वे ही सभी कारणों के पारमार्थिक कारण हैं, जैसा की भगवद्गीता में तथ्यों एवं आंकड़ों द्वारा वर्णित है। किन्तु वे स्वयं को अनुभव पर आधारित दार्शनिकों की ऐन्द्रिक अटकलों के समक्ष प्रकाशित न होने के सर्वाधिकार सुरक्षित रखते हैं।

8) इसलिए जो कोई भी भगवान को वस्तुतः जानना चाहता हो, उसे चाहिए कि वह भगवान की शरण में आए। क्योंकि अणु द्वारा विभु को जानने की यही वास्तविक प्रक्रिया है।

9) प्रेम के धर्म के द्वारा कृष्ण सहज ही मिल जाते हैं। अर्थात् प्रेम एवं सेवा द्वारा जैसा कि ब्रजबालाओं ने किया, जिनके पास न तो कोई ज्ञान था और ना ही किसी ऊंचे कुल में जन्म लेने का गौरव।

10) इसीलिए, मानवता को दी जाने वाली सर्वोच्च सेवा है, सभी देश, काल एवं पात्र हेतु भगवद्गीता के दर्शन व धर्म का प्रचार।

मैं आशा करता हूँ कि आप मुझसे सहमत हों और मानवता की इस प्रकार से सेवा करने के प्रयास में मेरे साथ सम्मिलित होंगे।

निष्ठापूर्वक आपका,

(हस्ताक्षरित)

अभय चरण डे


सेवा मेंः राजा मोहेन्द्र प्रताप
विश्व संस्थान
प्रेम मोह विद्यालय
पोस्ट ऑफिस बृंदाबन