HI/490228 - सरदार पटेल को लिखित पत्र, कलकत्ता: Difference between revisions
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'''< | [[File:490228_-_Letter_to_Sardar_Patel_1.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''भारत के उप प्रधानमंत्री, सरदार पटेल को पत्र (पाठ अनुपस्थित) (पृष्ठ १ से २)'''</div>]] | ||
</div> | [[File:490228_-_Letter_to_Sardar_Patel_2.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''भारत के उप प्रधानमंत्री, सरदार पटेल को पत्र (पृष्ठ २ से २)'''</div>]] | ||
कलकत्ता दिनांकित २६ फरवरी १९४९। | |||
प्रेषक: अभय चरण<br/> | |||
क्रमांक ६, सीताकांत बनर्जी गली,<br/> | |||
पी.सी. हत्खोला, कलकत्ता | |||
सेवा में<br /> | |||
आदरणीय सरदार वल्लभ भाईजी पटेल<br /> | |||
उप प्रधान मंत्री,<br /> | |||
भारत सरकार,<br /> | |||
नई दिल्ली। | |||
आदरणीय श्रीमान, | |||
आप मेरे विनम्र नमस्कार स्वीकार करें। महामहिम भारत के लौह पुरुष के नाम से विख्यात हैं, किन्तु मैं आपको एक अत्यन्त व्यावहारिक व्यक्तित्व के रूप में जानता हूँ जो चीज़ों को यथारूप देख सकते हैं। इस विचार को ध्यान में रखकर मैं महामहिम से उनके चिंतन और ज़रूरी कार्यवाई हेतु कुछ निवेदन करने जा रहा हूँ। | |||
महात्मा गांधीजी की स्मृति का सही प्रकार से आदर करने हेतु राशि इकट्ठा की जा रही है। मेरी विनती है कि यह गांधीवादी शैली में किया जाना चाहिये, और किसी प्रकार से नहीं। गांधीजी का पूरा जीवन, नैतिक उत्थान पर बल देते हुए, मानवता की सेवा को समर्पित था। उनके जीवन के उत्तरवर्ती भाग की गतिविधयों ने दर्शाया कि कैसे वे सबके लिए एक समान थे। और संसार के लोग उन्हें मात्र एक राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक नेता के रूप में ज्यादा जानते थे। भगवान के प्रति भक्ति उनका चरम लक्ष्य था। और जब मैं कहता हूँ कि उनकी पुण्य स्मृति की स्थापना किसी सामान्य ढ़ंग से नहीं बल्कि गांधीवादी शैली में होनी चाहिए, तो मेरे मायने निम्नलिखित शैली में यह संभव हो पाएगाः | |||
१) अपनी बहुमुखी गतिविधियों के मध्य में भी गांधीजी कभी अपनी रामधुन कीर्तन सभा में जाने से नहीं चूकते थे। यह भगवद्भक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम पद्धतियों में से है। श्रीमद् भागवतम् के मतानुसार, जिस व्यक्ति में भगवद्भक्ति का उदय हो जाता है, उसमें सारे दैवी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। किन्तु यदि कोई भगवद्भक्त नहीं है, तो उसके सद्गुणों का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वह अपने तथाकथित सद्गुणों का उपयोग केवल स्वार्थ के लिए करता है। वास्तव में आम लोंगों नैतिक के उत्त्थान हेतु सर्वोतम पद्धति है, नैतिक एवं सदाचार मूल्यों पर आधारित दार्शनिक उपदेशों के द्वारा, इस संकीर्तन आंदोलन को विश्व भर में प्रसिद्ध करना। वैष्णव आचार्यगण, खासकर भगवान चैतन्य और उनके षड्गोस्वामी शिष्यों ने हमें इस कार्य के लिए पर्याप्त अवसर एवं कार्यक्षेत्र दिया है। भगवान चैतन्य नें सर्वप्रथम इस संकीर्तन या रामधुन आंदोलन का उद्घाटन किया और तदोपरान्त गोस्वामियों ने विद्वत्तापूर्ण दार्शनिक संकलन से इसका समर्थन किया। इस बारे में श्रील जीव गोस्वामी कृत षट्संदर्भ तो अद्भुत ही हैं। | |||
२) दूसरी विषयवस्तु है मंदिरारोहण अथवा मंदिर अर्चना आंदोलन को अंगीकार करना। यह वस्तुतः एक ईश्वरवादी सास्कृतिक आंदोलन है और इसकी सुविधा या अवसर प्रत्येक को उपलब्ध होना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। अतीत के आचार्यों ने उन सब को स्वीकार किया जो पराभौतिक प्रेम और भक्ति के वशीभूत, भगवान की पूजा करने के इच्छुक थे। हम गांधीजी के इस आंदोलन का शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर समर्थन कर सकते हैं। पूरे भारत में हज़ारों लाखों मन्दिर हैं, लेकिन उनका सही संचालन हमेशा नहीं किया जाता। इनमें से कुछ तो अवांछनीय गतिविधियों के अड्डे ही बन चुके हैं और इन पवित्र इमारतों के अधिकतर मालिक अथवा ट्रस्टी इस बात से ही अनभिज्ञ हैं कि इनका यथायोग्य लाभ कैसे उठाया जाए। साथ ही, आजकल के आधुनिकृत सज्जनों को भी इन उपेक्षित ईश्वरवादी संस्थानों में कोई रुचि नहीं है। मूलतः इन मन्दिरों का लक्ष्य था, आध्यात्मिक संस्कृति का हर एक कोने में प्रचार। इसीलिए, इन मन्दिरों अथवा ईश्वरवादी संस्थानों का, भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में निर्धारित प्रामाणिक सिद्धान्तों के आधार पर पुनर्संगठन किया जाना चाहिए। | |||
३) तीसरी विषयवस्तु है, हरीजन आंदोलन को आगे बढ़ाना। यह आंदोलन, वास्तव में एक आध्यात्मिक बीजारोपण का आंदोलन है, और इसका संचालन ऐसे ढंग से होना चाहिए कि पूरे विश्व के लोगों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हो। हरीजन शब्द क अनादर नहीं किया जाना चाहिए, जैसा अभी हो रहा है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को हरीजन बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। हरीजन का अर्थ है पुरुषोत्तम भगवान का मान्यता प्राप्त व्यक्ति। और इसीलिए हरीजन वैसे ही महत्त्वपूर्ण है जैसे राजा के संबंध में उसका शूरवीर योद्धा। तो हरीजन आंदोलन को वैज्ञानिक आधार पर सबल किया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक व्यक्ति को, जो अभी मायाजन है, हरीजन बनाया जा सके। मायाजन शब्द उस मनुष्य पर लागू होता है जो आम तौर से, भौतिक लक्ष्यों को समर्पित रहता हो। जबकि हरीजन वह है, जिसका मुखेय उद्देश्य हो, महात्मा गांधी की ही तरह, आध्यात्मिक अनुभूति के माध्यम से अपने मानव जीवन की पूर्णता सिद्ध करना। इसालिए इस आंदोलन का संचालन एक प्रामाणिक हरीजन अथवा महाजन की सुझाई गई, कड़ी अनुशासनिक पद्धतियों पर आधारित होना चाहिए। ऐसे आंदोलन में हमें भारत के साधु समाज का पूरा सहयोग लेना होगा। | |||
४) चौथी विषयवस्तु है, बहु-विवादित जाति प्रणाली का, पूरे विश्व की मानवता के प्राकृतिक विभाजन की प्रणाली के रूप में पुनर्गठन। राष्ट्र के आधार पर मानव प्रजातियों का विभाजन कृत्रिम है, जबकि भगवद्गीता में सुझाया गया जाति प्रणाली का वैज्ञानिक विभाजन प्राकृतिक है। हमें ब्राह्मण इत्यादि केवल भारत नहीं अपितु पूरे विश्व से लेने होंगे। वर्तमान भारत की दूषित जाति प्रणाली बिलकुल भी शास्त्रसम्मत नहीं है। लेकिन जाति प्रणाली भगवान द्वारा गुण और कर्म पर आधारित की गई थी। और वह जन्मसिद्ध अधिकार के अन्तर्गत किसी को संयोगवश लाभ पंहुचाने के लिए रूपांकित नहीं की गई थी। फलतः जो कुछ भगवान ने बनाया है, उसे मनुष्य कभी भी नष्ट नहीं कर सकता। जाति प्रणाली के नाश के प्रतिपादकों का मनोरथ कभी सिद्ध नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्तित्व एक अलग ढंग से प्रकृति के गुणों से आच्छादित है और इसीलिए गुणात्मक दृष्टिकोण के साथ, मानव समाज का वैज्ञानिक विभाजन, जाति प्रणाली द्वारा किया जाना प्राकृतिक ही है। लेकिन ऐसी जाति प्रणाली का आधारभूत सिद्धांत है भगवान की इच्छा की सेवा। और ऐसा करने से जाति प्रणाली के चारों अंग, परस्पर सहयोग से उन्नति करते जांएगे। जब यथार्थ में ऐसी आध्यात्मिक प्रगति की जाएगी, तो फलस्वरूप, भौतिक प्रगति तो स्वतः होगी। ऐसे ही एक वास्तविक श्रेणीरहित समाज बनेगा। | |||
उपरोक्त चतुरंग गांधी आंदोलन, यदि सभी धर्मों के प्रामाणिक शास्त्रों के समर्थन के साथ, एक व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंग से किए जाएं तो शान्ति से उत्पन्न वह संतोष ले आएंगे जो हमें वर्तमान विश्व की सारी कठोरता एवं कड़वाहट से निजात दे दे और जिसके लिए हम अभी तक आतुर हैं। | |||
मैं उपरोक्त आंदोलनों के लिए एक आध्यात्मिक सभा संगठित करना चाहता हूँ, जिसके लिए मुझे आपके सक्रिय समर्थन एवं सहायता की आवश्यकता है। तात्कालिक आवश्यकता है कि एक उपयुक्त स्थान पर संगठन का एक केन्द्र स्थापित किया जाए, हो सके तो नई दिल्ली में, जो आपकी व्यक्तिगत देखरेख में रहे। यहां नवयुवकों की एक मंडली को इस दिव्य सेवा हेतु प्रशिक्षण दिया जाए। संभव हो तो इस कार्य के प्रचार-प्रसार हेतु एक मासिक पत्रिका जारी की जाए। | |||
यदि महामहिम मुझे एक भेंट का अवसर दें तो मैं व्यक्तिगत रूप से, आपको यह पूरी योजना सुझा कर कृतकृत्य होऊंगा और आपको यह बता सकूंगा कि पूरे विश्व से अशांति हटाने हेतु कैसे व्यवहारिक रूप से इस योजना को साकार किया जाए। ऐसा व्यवस्थित आंदोलन सभी सामाजिक व्याधियों के लिए रामबाण औषधि सिद्ध होगा। | |||
सरकार अनेकों कृत्रिम लक्ष्यों की सहायता कर रही है और मेरी प्रार्थना है कि इन गांधीवादी आंदोलनों को व्यवस्थित रूप में शुरु करने के लिए मासिक रु 2000 आवंटित किये जाएं। और प्रमाणिक आधारों पर मेरा मानना है कि यदि एक सुप्रसिद्ध व्यावहारिक व्यक्तित्व के रूप में यदि महामहिम मेरे विनीत सुझावों को मान लेते हैं, तो यह भगवान की इच्छा ही होगी, और इस प्रकार से वर्तमान विश्व का पूरा विपत्तिपूर्ण वातावरण ही सुधर जाएगा। मुझ अकिंचन को मेरे गुरू महाराज के चरण कमलों के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था और मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि सरकार की सहायता मिली तो मैं अवश्य ही इस कार्य को वैज्ञानिक ढंग से सुव्यवस्थित कर पाऊंगा। | |||
आपके बहुमूल्य समय पर अतिक्रमण करने के लिए क्षमा चाहते हुए, मैं आपके अविलम्ब उत्तर की बहुत आशा के साथ अपेक्षा करता हूँ। | |||
श्रद्धापूर्वक आपका, <br/> | |||
''[हस्ताक्षरित]'' |
Latest revision as of 06:04, 23 April 2022
कलकत्ता दिनांकित २६ फरवरी १९४९।
प्रेषक: अभय चरण
क्रमांक ६, सीताकांत बनर्जी गली,
पी.सी. हत्खोला, कलकत्ता
सेवा में
आदरणीय सरदार वल्लभ भाईजी पटेल
उप प्रधान मंत्री,
भारत सरकार,
नई दिल्ली।
आदरणीय श्रीमान,
आप मेरे विनम्र नमस्कार स्वीकार करें। महामहिम भारत के लौह पुरुष के नाम से विख्यात हैं, किन्तु मैं आपको एक अत्यन्त व्यावहारिक व्यक्तित्व के रूप में जानता हूँ जो चीज़ों को यथारूप देख सकते हैं। इस विचार को ध्यान में रखकर मैं महामहिम से उनके चिंतन और ज़रूरी कार्यवाई हेतु कुछ निवेदन करने जा रहा हूँ।
महात्मा गांधीजी की स्मृति का सही प्रकार से आदर करने हेतु राशि इकट्ठा की जा रही है। मेरी विनती है कि यह गांधीवादी शैली में किया जाना चाहिये, और किसी प्रकार से नहीं। गांधीजी का पूरा जीवन, नैतिक उत्थान पर बल देते हुए, मानवता की सेवा को समर्पित था। उनके जीवन के उत्तरवर्ती भाग की गतिविधयों ने दर्शाया कि कैसे वे सबके लिए एक समान थे। और संसार के लोग उन्हें मात्र एक राजनीतिज्ञ के रूप में नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक नेता के रूप में ज्यादा जानते थे। भगवान के प्रति भक्ति उनका चरम लक्ष्य था। और जब मैं कहता हूँ कि उनकी पुण्य स्मृति की स्थापना किसी सामान्य ढ़ंग से नहीं बल्कि गांधीवादी शैली में होनी चाहिए, तो मेरे मायने निम्नलिखित शैली में यह संभव हो पाएगाः
१) अपनी बहुमुखी गतिविधियों के मध्य में भी गांधीजी कभी अपनी रामधुन कीर्तन सभा में जाने से नहीं चूकते थे। यह भगवद्भक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम पद्धतियों में से है। श्रीमद् भागवतम् के मतानुसार, जिस व्यक्ति में भगवद्भक्ति का उदय हो जाता है, उसमें सारे दैवी गुण भी प्रकट हो जाते हैं। किन्तु यदि कोई भगवद्भक्त नहीं है, तो उसके सद्गुणों का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वह अपने तथाकथित सद्गुणों का उपयोग केवल स्वार्थ के लिए करता है। वास्तव में आम लोंगों नैतिक के उत्त्थान हेतु सर्वोतम पद्धति है, नैतिक एवं सदाचार मूल्यों पर आधारित दार्शनिक उपदेशों के द्वारा, इस संकीर्तन आंदोलन को विश्व भर में प्रसिद्ध करना। वैष्णव आचार्यगण, खासकर भगवान चैतन्य और उनके षड्गोस्वामी शिष्यों ने हमें इस कार्य के लिए पर्याप्त अवसर एवं कार्यक्षेत्र दिया है। भगवान चैतन्य नें सर्वप्रथम इस संकीर्तन या रामधुन आंदोलन का उद्घाटन किया और तदोपरान्त गोस्वामियों ने विद्वत्तापूर्ण दार्शनिक संकलन से इसका समर्थन किया। इस बारे में श्रील जीव गोस्वामी कृत षट्संदर्भ तो अद्भुत ही हैं।
२) दूसरी विषयवस्तु है मंदिरारोहण अथवा मंदिर अर्चना आंदोलन को अंगीकार करना। यह वस्तुतः एक ईश्वरवादी सास्कृतिक आंदोलन है और इसकी सुविधा या अवसर प्रत्येक को उपलब्ध होना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। अतीत के आचार्यों ने उन सब को स्वीकार किया जो पराभौतिक प्रेम और भक्ति के वशीभूत, भगवान की पूजा करने के इच्छुक थे। हम गांधीजी के इस आंदोलन का शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर समर्थन कर सकते हैं। पूरे भारत में हज़ारों लाखों मन्दिर हैं, लेकिन उनका सही संचालन हमेशा नहीं किया जाता। इनमें से कुछ तो अवांछनीय गतिविधियों के अड्डे ही बन चुके हैं और इन पवित्र इमारतों के अधिकतर मालिक अथवा ट्रस्टी इस बात से ही अनभिज्ञ हैं कि इनका यथायोग्य लाभ कैसे उठाया जाए। साथ ही, आजकल के आधुनिकृत सज्जनों को भी इन उपेक्षित ईश्वरवादी संस्थानों में कोई रुचि नहीं है। मूलतः इन मन्दिरों का लक्ष्य था, आध्यात्मिक संस्कृति का हर एक कोने में प्रचार। इसीलिए, इन मन्दिरों अथवा ईश्वरवादी संस्थानों का, भगवद्गीता जैसे शास्त्रों में निर्धारित प्रामाणिक सिद्धान्तों के आधार पर पुनर्संगठन किया जाना चाहिए।
३) तीसरी विषयवस्तु है, हरीजन आंदोलन को आगे बढ़ाना। यह आंदोलन, वास्तव में एक आध्यात्मिक बीजारोपण का आंदोलन है, और इसका संचालन ऐसे ढंग से होना चाहिए कि पूरे विश्व के लोगों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हो। हरीजन शब्द क अनादर नहीं किया जाना चाहिए, जैसा अभी हो रहा है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को हरीजन बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। हरीजन का अर्थ है पुरुषोत्तम भगवान का मान्यता प्राप्त व्यक्ति। और इसीलिए हरीजन वैसे ही महत्त्वपूर्ण है जैसे राजा के संबंध में उसका शूरवीर योद्धा। तो हरीजन आंदोलन को वैज्ञानिक आधार पर सबल किया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक व्यक्ति को, जो अभी मायाजन है, हरीजन बनाया जा सके। मायाजन शब्द उस मनुष्य पर लागू होता है जो आम तौर से, भौतिक लक्ष्यों को समर्पित रहता हो। जबकि हरीजन वह है, जिसका मुखेय उद्देश्य हो, महात्मा गांधी की ही तरह, आध्यात्मिक अनुभूति के माध्यम से अपने मानव जीवन की पूर्णता सिद्ध करना। इसालिए इस आंदोलन का संचालन एक प्रामाणिक हरीजन अथवा महाजन की सुझाई गई, कड़ी अनुशासनिक पद्धतियों पर आधारित होना चाहिए। ऐसे आंदोलन में हमें भारत के साधु समाज का पूरा सहयोग लेना होगा।
४) चौथी विषयवस्तु है, बहु-विवादित जाति प्रणाली का, पूरे विश्व की मानवता के प्राकृतिक विभाजन की प्रणाली के रूप में पुनर्गठन। राष्ट्र के आधार पर मानव प्रजातियों का विभाजन कृत्रिम है, जबकि भगवद्गीता में सुझाया गया जाति प्रणाली का वैज्ञानिक विभाजन प्राकृतिक है। हमें ब्राह्मण इत्यादि केवल भारत नहीं अपितु पूरे विश्व से लेने होंगे। वर्तमान भारत की दूषित जाति प्रणाली बिलकुल भी शास्त्रसम्मत नहीं है। लेकिन जाति प्रणाली भगवान द्वारा गुण और कर्म पर आधारित की गई थी। और वह जन्मसिद्ध अधिकार के अन्तर्गत किसी को संयोगवश लाभ पंहुचाने के लिए रूपांकित नहीं की गई थी। फलतः जो कुछ भगवान ने बनाया है, उसे मनुष्य कभी भी नष्ट नहीं कर सकता। जाति प्रणाली के नाश के प्रतिपादकों का मनोरथ कभी सिद्ध नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्तित्व एक अलग ढंग से प्रकृति के गुणों से आच्छादित है और इसीलिए गुणात्मक दृष्टिकोण के साथ, मानव समाज का वैज्ञानिक विभाजन, जाति प्रणाली द्वारा किया जाना प्राकृतिक ही है। लेकिन ऐसी जाति प्रणाली का आधारभूत सिद्धांत है भगवान की इच्छा की सेवा। और ऐसा करने से जाति प्रणाली के चारों अंग, परस्पर सहयोग से उन्नति करते जांएगे। जब यथार्थ में ऐसी आध्यात्मिक प्रगति की जाएगी, तो फलस्वरूप, भौतिक प्रगति तो स्वतः होगी। ऐसे ही एक वास्तविक श्रेणीरहित समाज बनेगा।
उपरोक्त चतुरंग गांधी आंदोलन, यदि सभी धर्मों के प्रामाणिक शास्त्रों के समर्थन के साथ, एक व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंग से किए जाएं तो शान्ति से उत्पन्न वह संतोष ले आएंगे जो हमें वर्तमान विश्व की सारी कठोरता एवं कड़वाहट से निजात दे दे और जिसके लिए हम अभी तक आतुर हैं।
मैं उपरोक्त आंदोलनों के लिए एक आध्यात्मिक सभा संगठित करना चाहता हूँ, जिसके लिए मुझे आपके सक्रिय समर्थन एवं सहायता की आवश्यकता है। तात्कालिक आवश्यकता है कि एक उपयुक्त स्थान पर संगठन का एक केन्द्र स्थापित किया जाए, हो सके तो नई दिल्ली में, जो आपकी व्यक्तिगत देखरेख में रहे। यहां नवयुवकों की एक मंडली को इस दिव्य सेवा हेतु प्रशिक्षण दिया जाए। संभव हो तो इस कार्य के प्रचार-प्रसार हेतु एक मासिक पत्रिका जारी की जाए।
यदि महामहिम मुझे एक भेंट का अवसर दें तो मैं व्यक्तिगत रूप से, आपको यह पूरी योजना सुझा कर कृतकृत्य होऊंगा और आपको यह बता सकूंगा कि पूरे विश्व से अशांति हटाने हेतु कैसे व्यवहारिक रूप से इस योजना को साकार किया जाए। ऐसा व्यवस्थित आंदोलन सभी सामाजिक व्याधियों के लिए रामबाण औषधि सिद्ध होगा।
सरकार अनेकों कृत्रिम लक्ष्यों की सहायता कर रही है और मेरी प्रार्थना है कि इन गांधीवादी आंदोलनों को व्यवस्थित रूप में शुरु करने के लिए मासिक रु 2000 आवंटित किये जाएं। और प्रमाणिक आधारों पर मेरा मानना है कि यदि एक सुप्रसिद्ध व्यावहारिक व्यक्तित्व के रूप में यदि महामहिम मेरे विनीत सुझावों को मान लेते हैं, तो यह भगवान की इच्छा ही होगी, और इस प्रकार से वर्तमान विश्व का पूरा विपत्तिपूर्ण वातावरण ही सुधर जाएगा। मुझ अकिंचन को मेरे गुरू महाराज के चरण कमलों के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ था और मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि सरकार की सहायता मिली तो मैं अवश्य ही इस कार्य को वैज्ञानिक ढंग से सुव्यवस्थित कर पाऊंगा।
आपके बहुमूल्य समय पर अतिक्रमण करने के लिए क्षमा चाहते हुए, मैं आपके अविलम्ब उत्तर की बहुत आशा के साथ अपेक्षा करता हूँ।
श्रद्धापूर्वक आपका,
[हस्ताक्षरित]
- HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र जो लिखे गए - भारत से
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र जो लिखे गए - भारत, कलकत्ता से
- HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत
- HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत, कलकत्ता
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- HI/श्रील प्रभुपाद के सभी पत्र हिंदी में अनुवादित
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