HI/580728 - श्री बनर्जी को लिखित पत्र, बॉम्बे: Difference between revisions

(Created page with "Category:HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र‎ Category:HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र...")
 
 
Line 4: Line 4:
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत‎]]
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत‎]]
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत, बॉम्बे‎]]
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत, बॉम्बे‎]]
[[Category:Letters to Miscellaneous]]
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र - विविध को]]
[[Category:HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र - मूल पृष्ठों के स्कैन सहित‎]]
[[Category:HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र - मूल पृष्ठों के स्कैन सहित‎]]
[[Category:1947 to 1964 - Letters with Scans of the Originals - unchecked]]
[[Category:HI/श्रील प्रभुपाद के सभी पत्र हिंदी में अनुवादित]] 
<div style="float:left">[[File:Go-previous.png|link=Category:Letters - by Date]]'''[[:Category:Letters - by Date|Letters by Date]], [[:Category:1947 to 1964 - Letters|1947 to 1964]]'''</div>
[[Category:HI/सभी हिंदी पृष्ठ]]
[[File:580728_-_Letter_to_Mr._Banerjee_1.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''श्री बनर्जी को पत्र (Page 1 of 2)'''</div>]]
<div style="float:left">[[File:Go-previous.png| link=Category: श्रील प्रभुपाद के पत्र - दिनांक के अनुसार ]]'''[[:Category: HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र - दिनांक के अनुसार | HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र - दिनांक के अनुसार]], [[:Category: HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र |1947 से 1964]]'''</div>
[[File:580728_-_Letter_to_Mr._Banerjee_2.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''श्री बनर्जी को पत्र (Page 2 of 2)'''</div>]]
[[File:580728_-_Letter_to_Mr._Banerjee_1.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''श्री बनर्जी को पत्र (पृष्ठ १ से २)'''</div>]]
[[File:580728_-_Letter_to_Mr._Banerjee_2.JPG|608px|thumb|left|<div class="center">'''श्री बनर्जी को पत्र (पृष्ठ २ से २)'''</div>]]








बॉम्बे कार्यालय  
बॉम्बे कार्यालय <br/>
९३, नारायण दनोरु मार्ग
बॉम्बे- ३


  २८/७/५८
९३, नारायण दनोरु मार्ग <br/>


बॉम्बे- ३ <br/>


२८/७/५८ <br/>
<br/>
मेरे प्रिय वेद प्रकाश जी,  <br/>
पिछले दिन हुए भेंटवार्ता के आधार पर ,मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि हमारे मतभेदों का कारण इस तथ्य पर आधारित है कि विदेशों में हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार के मामले में आपकी अपनी राय है पर जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं एक श्रेष्ठ अधिकारी और मुक्त व्यक्ति के आदेश द्वारा संचालित हूं। मेरे आध्यात्मिक गुरु ॐ विष्णुपद श्री श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज इसे चाहते थे और मै बस बिना किसी व्यक्तिगत सनक के उनकी सेवा करना चाह रहा हूँ। <br/>


मेरे प्रिय वेद प्रकाश जी, 
यदि आपने मेरा संयोग दिया होता, तो आपको भी श्री गुरु के प्रसन्नता हेतु सेवा का अवसर प्राप्त हुआ होता, जो की भगवान के एक आभयंतर प्रतिनिधि है। ईसा मसी जैसे विश्व प्रचारकों के प्रति आपका सम्मान देख - मैं अत्यंत हर्षित हुआ और मै आपमें स्पष्ट रूप से पीड़ित मनुष्य के प्रति सच्चा सेवाभाव देख रहा हूँ। यह आपके लिए एक मौका है और यदि आप चाहें तो इस अवसर का उपयोग अपने और अन्य सभी के लाभ के लिए उठा सकते है। यह सब काल्पनिक व आत्म अनुपालन नही है, सिर्फ प्रत्युत तथ्य है। आपके शुध शादर्श को देख  मैने मैंने यह प्रस्ताव आपके समक्ष  रखा था, परंतु अगर आप इंकार करते हैं, तो मैं कर भी क्या सकता हूँ? स्वयं श्री कृष्ण भगवान भी किसी को विवश नही कर सकते क्योंकि उन्होंने ही हर जीव को स्वावलंबन प्रदान किया है। इस मनुष्य देह के अस्थायी होने के बावजूद , इसे अति उत्कृष्ट तरीक़ों से भगवान की सेवा में लगाया जा सकता है। वह उच्चतम तत्व सब कुछ है, परंतु सब कुछ वह उच्चतम तत्व नहीं है। पेट सभी अंगों के लिए खाद्य पदार्थों को पचा सकता है लेकिन शरीर के सभी अंग पेट नहीं हैं। इस अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व  का प्रचार, श्री चैतन्य महाप्रभु ने विश्व के कल्याण के लिए किया था। इस तत्व के व्यवहारिक प्रचार की उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है। अपनी मनमर्जी से इस  तत्व पर विवेचन करना असंभव है। यह एक विज्ञान है जिसे प्रमाणिक सूत्रों से ही समझा जा सकता है। श्री कृष्ण भगवान का शरीर, मानव शरीर के भाँति मास और मज्जे से युक्त नही है और न ही उनकी लीलाएं किसी भी सांसारिक विद्वान के विवेचन के लिए हैं। इन सब को समझने के लिए एक शैली है जो जब तक हमारे पास नहीं होगी, तब तक हमारी ऊर्जा किसी भी आम आदमी के पाखंड में व्यर्थ होती रहेगी। मेरा आपसे इसके बारे में कुछ कहने का मन था लेकिन आपने मेरे सहयोग का खंडन किया है और अब मुझे इसके बारे में कुछ कहने को नहीं है। मुझे आशा है कि आप अपने अवकाश के समय में इस पर विचार करेंगे और उपकृत करेंगे। आपको प्रत्याशा में धन्यवाद और आपके शीघ्र उतर की प्रतीक्षा है। <br/>
पिछले दिन हुए भेंटवार्ता के आधार पर ,मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि हमारे मतभेदों का कारण इस तथ्य पर आधारित है कि विदेशों में हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार के मामले में आपकी अपनी राय है पर जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं एक श्रेष्ठ अधिकारी और मुक्त व्यक्ति के आदेश द्वारा संचालित हूं । मेरे आध्यात्मिक गुरु ॐ विष्णुपद श्री श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराजा इसे चाहते थे और मै बस बिना किसी व्यक्तिगत सनक के उनकी सेवा करना चाह रहा हूँ।
आपका निष्ठापूर्वक, <br/>
 
ए.सी. भक्तिवेदांत  स्वामी
 
यदि आपने मेरा संयोग दिया होता , तो आपको भी श्री गुरु के प्रसन्नता हेतु सेवा का अवसर प्राप्त हुआ होता, जो की भगवान के एक आभयंतर प्रतिनिधि है। ईसा मसी जैसे विश्व प्रचारकों के प्रति आपका सम्मान देख - मैं अत्यंत हर्षित हुआ और मै आपमें स्पष्ट रूप से पीड़ित मनुष्य के प्रति सच्चा सेवाभाव देख रहा हूँ।यह आपके लिए एक मौका है और यदि आप चाहें तो इस अवसर का उपयोग अपने और अन्य सभी के लाभ के लिए उठा सकते है। यह सब काल्पनिक व आत्म अनुपालन नही है , सिर्फ़  प्रत्युत तथ्य है । आपके शुध शादर्श को देख  मैने मैंने यह प्रस्ताव आपके समक्ष  रखा था, परंतु अगर आप इंकार करते हैं, तो मैं कर भी क्या सकता हूँ ? स्वयं श्री कृष्ण भगवान भी किसी को विवश नही कर सकते क्योंकि उन्हों ने ही हर जीव को स्वावलंबन प्रदान किया है। इस मनुष्य देह के अस्थायी होने के बावजूद , इसे अति उत्कृष्ट तरीक़ों से भगवान की सेवा में लगाया जा सकता है। वह उच्चतम तत्व सब कुछ है, परंतु सब कुछ वह उच्चतम तत्व नहीं है  । पेट सभी अंगों के लिए खाद्य पदार्थों को पचा सकता है लेकिन शरीर के सभी अंग पेट नहीं हैं। इस अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व  का प्रचार , श्री चैतन्य महाप्रभु ने विश्व के कल्याण के लिए किया था। इस तत्व के व्यवहारिक प्रचार की ज़िमेद्दारि हमारे कंधों पर है। अपनी मनमर्जी से इस  तत्व पर विवेचन करना असंभव है। यह एक विज्ञान है जिसे प्रमाणिक सूत्रों से ही समझा जा सकता है। श्री कृष्ण भगवान का शरीर, मानव शरीर के भाँति मास और मज्जे से युक्त नही है और न ही उनकी लीलाएं किसी भी संसारीक्  विद्वान के विवेचन के लिए हैं। इन सब को समझने के लिए एक शैली है जो जब तक हमारे पास नहीं होगी, तब तक हमारी ऊर्जा किसी भी आम आदमी के पाखंड में व्यर्थ होती रहेगी। मेरा आपसे इसके बारे में कुछ कहने का मन था लेकिन आपने मेरे सहयोग का खंडन किया है और अब मुझे इसके बारे में कुछ कहने को नहीं है। मुझे आशा है कि आप अपने अवकाश के समय में इस पर विचार करेंगे और उपकृत करेंगे।
 
धन्यवाद
आपका निष्ठापूर्वक,  
ए. सी. भक्तिवेदांत  स्वामी

Latest revision as of 06:15, 24 April 2022

श्री बनर्जी को पत्र (पृष्ठ १ से २)
श्री बनर्जी को पत्र (पृष्ठ २ से २)



बॉम्बे कार्यालय

९३, नारायण दनोरु मार्ग

बॉम्बे- ३

२८/७/५८

मेरे प्रिय वेद प्रकाश जी,
पिछले दिन हुए भेंटवार्ता के आधार पर ,मैं आपको सूचित करना चाहता हूं कि हमारे मतभेदों का कारण इस तथ्य पर आधारित है कि विदेशों में हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के प्रचार के मामले में आपकी अपनी राय है पर जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं एक श्रेष्ठ अधिकारी और मुक्त व्यक्ति के आदेश द्वारा संचालित हूं। मेरे आध्यात्मिक गुरु ॐ विष्णुपद श्री श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज इसे चाहते थे और मै बस बिना किसी व्यक्तिगत सनक के उनकी सेवा करना चाह रहा हूँ।

यदि आपने मेरा संयोग दिया होता, तो आपको भी श्री गुरु के प्रसन्नता हेतु सेवा का अवसर प्राप्त हुआ होता, जो की भगवान के एक आभयंतर प्रतिनिधि है। ईसा मसी जैसे विश्व प्रचारकों के प्रति आपका सम्मान देख - मैं अत्यंत हर्षित हुआ और मै आपमें स्पष्ट रूप से पीड़ित मनुष्य के प्रति सच्चा सेवाभाव देख रहा हूँ। यह आपके लिए एक मौका है और यदि आप चाहें तो इस अवसर का उपयोग अपने और अन्य सभी के लाभ के लिए उठा सकते है। यह सब काल्पनिक व आत्म अनुपालन नही है, सिर्फ प्रत्युत तथ्य है। आपके शुध शादर्श को देख मैने मैंने यह प्रस्ताव आपके समक्ष रखा था, परंतु अगर आप इंकार करते हैं, तो मैं कर भी क्या सकता हूँ? स्वयं श्री कृष्ण भगवान भी किसी को विवश नही कर सकते क्योंकि उन्होंने ही हर जीव को स्वावलंबन प्रदान किया है। इस मनुष्य देह के अस्थायी होने के बावजूद , इसे अति उत्कृष्ट तरीक़ों से भगवान की सेवा में लगाया जा सकता है। वह उच्चतम तत्व सब कुछ है, परंतु सब कुछ वह उच्चतम तत्व नहीं है। पेट सभी अंगों के लिए खाद्य पदार्थों को पचा सकता है लेकिन शरीर के सभी अंग पेट नहीं हैं। इस अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व का प्रचार, श्री चैतन्य महाप्रभु ने विश्व के कल्याण के लिए किया था। इस तत्व के व्यवहारिक प्रचार की उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है। अपनी मनमर्जी से इस तत्व पर विवेचन करना असंभव है। यह एक विज्ञान है जिसे प्रमाणिक सूत्रों से ही समझा जा सकता है। श्री कृष्ण भगवान का शरीर, मानव शरीर के भाँति मास और मज्जे से युक्त नही है और न ही उनकी लीलाएं किसी भी सांसारिक विद्वान के विवेचन के लिए हैं। इन सब को समझने के लिए एक शैली है जो जब तक हमारे पास नहीं होगी, तब तक हमारी ऊर्जा किसी भी आम आदमी के पाखंड में व्यर्थ होती रहेगी। मेरा आपसे इसके बारे में कुछ कहने का मन था लेकिन आपने मेरे सहयोग का खंडन किया है और अब मुझे इसके बारे में कुछ कहने को नहीं है। मुझे आशा है कि आप अपने अवकाश के समय में इस पर विचार करेंगे और उपकृत करेंगे। आपको प्रत्याशा में धन्यवाद और आपके शीघ्र उतर की प्रतीक्षा है।
आपका निष्ठापूर्वक,
ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी