HI/720422 - धर्म को लिखित पत्र, टोक्यो: Difference between revisions
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22 अप्रैल, 1972
गेन्सविल्ले
मेरे प्रिय धर्म,
कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा 14 मार्च, 1972 का पत्र मिल गया है और मैंने इसे पढ़ा है। वास्तव में कृष्ण को इससे परवाह नहीं है कि हम उन्हें कितना कुछ देते हैं। बल्कि वे देखते हैं कि हम स्वयं अपने लिए कितना बचा रहे हैं। एक कहानी है, भगवान चैतन्य के एक भक्त कोलावेचा श्रीधर की, जो कि हालांकि बहुत गरीब व्यक्ति थे पर अपनी मामूली आय का आधा हिस्सा माँ गंगा की पूजा के लिए दे दिया करते थे। और ऐसा करके उन्होंने भगवान को बहुत प्रसन्न किया। यह बात इतनी महत्तवपूर्ण नहीं है कि हम कितनी मात्रा में पुस्तकें वितरित कर रहे हैं। महत्तवपूर्ण यह है कि हम अपनी क्षमता के अनुसार सर्वोत्तम रूप से कृष्ण की सेवा करें और परिणाम के लिए उन्हीं पर निर्भर रहें। पराभौतिक प्रतिस्पर्धा होना अच्छा है, लेकिन वह इस स्तर तक नहीं पंहुच जानी चाहिए कि हम अपना कृष्णभावनामृत खो बैठें। जब तुम्हें इस प्रकार की भावानाएं महसूस हों, तो तुम उन्हें ईर्ष्या समझने की भूल मत करो। बल्कि तुम्हें इन्हें अपने गुरुभाईयों द्वारा की जा रही सेवाओं के प्रति एक अप्रत्यक्ष सराहना मानना चाहिए। यह दिव्य है। भौतिक जगत में जब कोई हमसे किसी प्रकार से आगे निकल जाता है तो हम क्रुद्ध हो जाते हैं और उसे रोकने की योजना बनाते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जगत में जब कोई बेहतर सेवा करता है तो हम सोचते हैं कि “अहो, इसने कितनी अच्छी प्रकार से कार्य किया है। मुझे इस सेवा में इसकी सहायता करनी चाहिए।” तो हमें सदैव इस मनोभाव को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए और हमारी क्षमता अनुसार सर्वोत्तम तरीके से कृष्ण की सेवा करनी चाहिए। इससे व्यक्ति की आध्यात्मिक जीवन में उन्नति होगी।
आशा करते हुए कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य व प्रसन्नचित्त में प्राप्त हो।
सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,
ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
एसीबीएस/एनकेडी
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