HI/BG 2.34

Revision as of 14:26, 28 July 2020 by Harshita (talk | contribs) (Bhagavad-gita Compile Form edit)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 34

mj

शब्दार्थ

अकीॢतम्—अपयश; च—भी; अपि—इसके अतिरिक्त; भूतानि—सभी लोग; कथयिष्यन्ति—कहेंगे; ते—तुम्हारे; अव्ययाम्—सदा के लिए; सम्भावितस्य—सम्मानित व्यक्ति के लिए; च—भी; अकीॢत:—अपयश, अपकीॢत; मरणात्—मृत्यु से भी; अतिरिच्यते—अधिक होती है।

अनुवाद

लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है |

तात्पर्य

अब अर्जुन के मित्र तथा गुरु के रूप में भगवान् कृष्ण अर्जुन को युद्ध से विमुख न होने का अन्तिम निर्णय देते हैं | वे कहते हैं, “अर्जुन! यदि तुम युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व ही युद्धभूमि छोड़ देते हो तो लोग तुम्हें कायर कहेंगे | और यदि तुम सोचते हो कि लोग गाली देते रहें, किन्तु तुम युद्धभूमि से भागकर अपनी जान बचा लोगे तो मेरी सलाह है कि तुम्हें युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा | तुम जैसे सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बुरी है | अतः तुम्हें प्राणभय से भागना नहीं चाहिए, युद्ध में मर जाना ही श्रेयस्कर होगा | इसे तुम मेरी मित्रता का दुरूपयोग करने तथा समाजमें अपनी प्रतिष्ठा खोने के अपयश से बच जाओगे |”

अतः अर्जुन के लिए भगवान् का अन्तिम निर्णय था कि वह संग्राम से पलायन न करे अपितु युद्ध में मरे |