HI/BG 18.21
श्लोक 21
- v
शब्दार्थ
पृथक्त्वेन—विभाजन के कारण; तु—लेकिन; यत्—जो; ज्ञानम्—ज्ञान; नानाभावान्—अ नेक प्रकार की अवस्थाओं को; पृथक्-विधान्—विभिन्न; वेत्ति—जानता है; सर्वेषु—समस्त; भूतेषु—जीवों में; तत्—उस; ज्ञानम्—ज्ञान को; विद्धि—जानो; राजसम्—राजसी।
अनुवाद
जिस ज्ञान से कोई मनुष्य विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न प्रकार का जीव देखता है, उसे तुम राजसी जानो |
तात्पर्य
यह धारणा कि भौतिक शरीर ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती है, राजसी ज्ञान है | इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर दूसरे शरीर से भिन्न है, क्योंकि उनमें चेतना का विकास भिन्न प्रकार से होता है, अन्यथा चेतना को प्रकट करने वाला पृथक् आत्मा न रहे | शरीर स्वयं आत्मा है और शरीर के परे कोई पृथक् आत्मा नहीं है | इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्थायी है | या यह कि पृथक् आत्माएँ नहीं होती; एक सर्वव्यापी आत्मा है, जो ज्ञान से पूर्ण है और यह शरीर क्षणिक अज्ञानता का प्रकाश है | या यह कि इस शरीर के परे कोई विशेष जीवात्मा या परम आत्मा नहीं है | ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न हैं |