HI/Prabhupada 0707 - जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं
Lecture on SB 3.26.30 -- Bombay, January 7, 1975
आध्यात्मिक दुनिया है । भगवद गीता में कृष्ण कहते हैं कि: परस तस्मात तू भाव: अन्यः (भ गी ८।२०) "एक और भाव है, प्रकृति ।" वह प्रकृति क्या है? सर्वषु नश्यत्सु न विनश्यति: "जब भौतिक दुनिया, यह लौकिक अभिव्यक्ति, अद्भुत दुनिया, खत्म हो जाएगा, वह रहेगा । यह समाप्त नहीं होगा । " कई उदाहरण मौजूद हैं । जैसे रेगिस्तान में मृगतृष्णा की तरह । कभी कभी आप रेगिस्तान में पानी का विशाल समूह देखते हैं । जानवर पानी के पीछे भागता है, प्यास होने के कारण, लेकिन पानी नहीं है । इसलिए पशु मर जाता है । लेकिन इंसान को जानवर की तरह नहीं होना चाहिए । उन्हे अपना मानक उठाना चाहिए । उन्हें विशेष चेतना मिली है । वे अपने मानक को बढ़ा सकते हैं भगवान द्वारा दिए गए इन साहित्यों को, वैदिक साहित्य को समझ कर । व्यासदेव कृष्ण का अवतार हैं, तो उन्होंने हमें वैदिक साहित्य दी है । इसलिए उनका नाम वेदव्यास है, भगवान के अवतार, वेदव्यास । महा-मुनि-कृते किम वा परै: अटकलों की कोई जरूरत नहीं है । केवल परम्परा उत्तराधिकार में व्यासदेव का अनुसरण करें । व्यासदेव के शिष्य नारद मुनि हैं । नारद मुनि के शिष्य व्यासदेव हैं । तो इस परम्परा प्रणाली में, अगर हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो यह सही ज्ञान है । इसलिए हम इसे स्वीकार करना होगा । निश्चयात्मिका ।
इसलिए रूपा गोस्वामी कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन को उन्नत किया जा सकता है । पहला सिद्धांत है उत्साह । उत्साहात । उत्साह का मतलब है जोश । "हाँ, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ गी १८।६६) । मैं यह स्वीकार करता हूँ और इस सिद्धांत पर उत्साह से काम करूँगा, जैसा कृष्ण कहते हैं ।" कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी माम नमस्कुरु (भ ी १८।६५) और हमें यह करना होगा, उत्साह के साथ इसे लागू करना होगा । "हाँ, मैं हमेशा कृष्ण के बारे में सोचूँ्गा ।" मन-मना: ।. कृष्ण सीधा कहते हैं । मन मना भव मद भक्त: "तुम केवल मेरे भक्त बन जाअो ।" इसलिए हम उत्साहित होना चाहिए, "हाँ, मैं कृष्ण का भक्त बनूँ्गा ।" मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी । कृष्ण कहते हैं, "मेरी पूजा करो", तो हमें बहुत उत्साहित होना चाहिए कृष्ण की पूजा करने के लिए मंगल-अारत्रिक करना, सुबह जल्दी उठना । ये सभी उत्साह हैं, उत्साह । जो उत्साहित नहीं हैं, आलसी, सुस्त, वे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ नहीं सकते हैं । केवल सो कर , वे नहीं कर सकते हैं । हमें बहुत, बहुत उत्साहित होना चाहिए, सकारात्मक । उत्साहाद धैर्यात । धैर्य का मतलब है सब्र । एसा नहीं कि " क्योंकि मैंने बड़े उत्साह के साथ भक्ति सेवा शुरू की है..... तो तुम पूणर्ता के मंच पर पहले से ही हो, लेकिन अगर तुम अधीर हो जाते हो कि, "क्यों मैं पूर्ण नहीं हो रहा हूँ? कभी कभी क्यों माया मुझे लात मार रही है? " हाँ । यह स्वभाविक है । यह चलता रहेगा । यह बंद हो जाएगा । निश्चयात । धैर्यात, निश्चयात , कि "जब कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ गी १८।६६) अब मैंने सब कुछ छोड़ दिया है । मेरा कोई अन्य व्यावसायिक कर्तव्य नहीं है । केवल कृष्ण की सेवा के लिए । तो जब मैंने यह अपना लिया है, तब निश्चय, कृष्ण निश्चित रूप से मुझे सुरक्षा देंगे ।" इसे निश्चय कहा जाता है । निराश मत हो । कृष्ण एक झूठे वक्ता नहीं हैं । वे कहते हैं, अहम् त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि ।