HI/Prabhupada 0755 - समुद्र पीड़ित
Lecture on SB 6.1.7 -- Honolulu, May 8, 1976
प्रभुपाद: तुमने भगवद गीता पढ़ी है। सर्व-योनिशु: जन्म के सभी स्रोतों में। सर्व-योनिशु सम्भवन्ति मुर्तयोह् यह (बीजी 14.4)। जीवन, ८४,00,000 के विभिन्न रूप हैं। यह सब जिव आतमाये है, परन्तु कर्म के अनुसार् उन्हे विभिन्न शरिर मिले है। यह अंतर है। जैसे हमे अप्ने पसन्द से अलग अलग कपडे मिलते है, इसी तरह, हम अपनी पसंद के हिसाब से अलग-अलग शरीर भी मिलते है। आज सुबह हम पीड़ित के बारे में बात कर रहे थे ... क्या कहा जाता है? समुद्र ग्रस्त लोगो को?
भक्त: सर्फर्स।
प्रभुपाद: सर्फ़र, हाँ। (भक्त हँसते हैं) सर्फर। मैंने कहा, "पीड़ित कहते हैं।" 'सी-पीड़ित। " (हंसी) सागर-सर्फर, यह व्यावहारिक है क्योंकि हम एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहे हैं जिसके द्वारा हम एक मछली हो जाएंगे। (हंसी) हाँ। संदूषण। बस आप जानबूझकर कुछ रोग दूषित तरह,से दूशीत हो रहे है तोह आप्को उस्सी रोग की बीमारी से ग्रस्त होना पदेगा । करणम गुना-सांगो 'भगवद गीता में स्य सत असत जन्म योनिशू (बीजी 13.22),। क्यों विभिन्न प्रकार के जीवन है ? क्या कारण है? उस कारण का मतलब है कारणम् । श्री कृष्ण भगवद में कहते हैं ... करणम गुना-सांगो 'स्य दुखद-असद जन्म-योनिशु। प्राक्रिते क्रियमानानि (बीजी 3.27)। प्रक्रिति - स्थो ऽपि पुरुष भुञ्जन्ते तद्-गुणान (बीजी 13.22)। तोह कारण यह है .. जेसे हम संक्रमित कर रहे है... प्रकृति का नियम इतना परिपुर्न है कि अगर तुम कोइ रोग संक्रमित कर्ते हो कुछ संदूषण, तो तुम्हे भुगतना होगा। यह प्रक्रुति का नियम स्वयं ही चलता रेहता है। करणम गुना-सांगो 'स्य। इसिलिए भौतिक जग के तीन गून है - सत्त्व, रजस , तमोह्। जब तक हम इस भौतिक दुनिया में हैं, पुरुष प्रक्ति-स्थो ऽपि भुञ्जन्ते तद्-गुणान्। अगर हम कोइ निश्चित जगह में रहते हैं, तोह हम उस जगह के गुनो से प्रभावित होते है । तो तीन तरीके हैं: सत्व-गुना, रजो-गुना ... या तो हम सतोह गुन का संग़ लेते है, या तोह रजो गुन या तोह रजो गुन , अरेह , तमोह । अब तीन गूनी तीन , नौ बन जाता है, और नौ गूनी नौ, इक्यासी हो जाता है। तो मिश्रण। रंग़ो की तरह । नीले, लाल और पीले: तीन रंग हैं। अब, रंग निर्माण कर्ने में जो लोग विशेषज्ञ हैं, कलाकार , वे अलग तरह से इन तीन रंगों का मिश्रण करते है और प्रदर्शित करते हैं। इसी तरह, गुणों या मिश्रण के अनुसार, -संग करणम गुना-सांगो 'स्य - हमे विभिन्न प्रकार के शरीर मिलते है। इसलिए हम शरीर की कई प्रकार देखते हैं। करणम गुना-सांगो 'स्य (बीजी 13.22)। तो, बहुत ज्यादा खुशी ले रही मछली की तरह समुद्र में नाच रहा है जो व्यक्ति, प्रकृति के गुनो को दूषित कर रहा है तोह वह् अगले जन्म में एक मछली बन जाएगा । सागर के साथ नृत्य करने के लिए बहुत मुक्त हो जाएगा। (हंसी) अब, यह इंसान के मंच पर आने के लिए उसे फिर से लाखों वर्ष लग जाएगा। ञलजा नवऌअक्षाणि स्थावरा लक्ष-विमशति.। उस्से मछली के जीवन से गुजरना पदेगा । जीवन की 900,000 अलग प्रजातियां हैं। फ़िर आप फ़िर्से भूमि पे आ जाते हो - आप पेड , पौधे और ऐसे हि .... दो लाखों विभिन्न रूपों आप के माध्यम से जाना पडता है। यही विकास है। विकास के डार्विन का सिद्धांत जो है, कि पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। यह वैदिक साहित्य में विस्तार से बताया है। तो बस ... एक पेड़ साल के दस हजार के वर्श से खडा है, हम इस जीवन के माध्यम से गुजरना पडता ही है । लेकिन कोई सही ज्ञान नहीं है। हम सोच रहे हैं कि हम बहुत अच्छे अमेरिकी शरीर या भारतीय शरीर मे हैं । नहीं, इस जीवन मे आने के लिये कई साल लग गए। इसलिए सस्त्र का कहना हैब्ध्वा सुदुर्लाभ इदं बहू-सम्भवान्ते (एसबी 11.9.29), : तुम्हे ये मानव का जीवन कई, कई लाखों साल के इंतजार के बाद मिल गया है।" तो इस्का दुरुपयोग नहीं करो। यही वैदिक सभ्यता है, मानव जीवन का दुरुपयोग नहीं करे ।