HI/BG 4.10

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 10

k

शब्दार्थ

वीत—मुक्त; राग—आसक्ति; भय—भय; क्रोधा:—तथा क्रोध से; मत्-मया—पूर्णतया मुझमें; माम्—मुझमें; उपाश्रिता:—पूर्णतया स्थित; बहव:—अनेक; ज्ञान—ज्ञान की; तपसा—तपस्या से; पूता:—पवित्र हुआ; मत्-भावम्—मेरे प्रति दिव्य प्रेम को; आगता:—प्राह्रश्वत।

अनुवाद

लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है |

तात्पर्य

जैसा कि पहले कहा जा चुका है विषयों में आसक्त व्यक्ति के लिए परमसत्य के स्वरूप को समझ पाना अत्यन्त कठिन है | सामान्यतया जो लोग देहात्मबुद्धि में आसक्त होते हैं, वे भौतिकतावाद में इतने लीन रहते हैं कि उनके लिए यह समझ पाना असम्भव सा है कि परमात्मा व्यक्ति भी हो सकता है | ऐसे भौतिकतावादी व्यक्ति इसकी कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी दिव्य शरीर है जो नित्य तथा सच्चिदानन्दमय है | भौतिकतावादी धारणा के अनुसार शरीर नाशवान्, अज्ञानमय तथा अत्यन्त दुखमय होता है | अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के विषय में बताया जाता है तो उनके मन में शरीर की यही धारणा बनी रहती है | ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों के लिए विराट भौतिक जगत् का स्वरूप ही परमतत्त्व है | फलस्वरूप वे परमेश्र्वर को निराकार मानते हैं और भौतिकता में इतने तल्लीन रहते हैं कि भौतिक पदार्थ से मुक्ति के बाद भी अपना स्वरूप बनाये रखने के विचार से डरते हैं | जब उन्हें यह बताया जाता है कि आध्यात्मिक जीवन भी व्यक्तिगत तथा साकार होता है तो वे पुनः व्यक्ति बनने से भयभीत हो उठते हैं, फलतः वे निराकार शून्य में तदाकार होना पसंद करते हैं | सामान्यतया वे जीवों की तुलना समुद्र के बुलबुलों से करते हैं, जो टूटने पर समुद्र में ही लीन हो जाते हैं | पृथक् व्यक्तित्व से रहित आध्यात्मिक जीवन की यह चरम सिद्धि है | यह जीवन की भयावह अवस्था है, जो आध्यात्मिक जीवन के पूर्णज्ञान से रहित है | इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक जीवन को तनिक भी नहीं समझ पाते | अनेक वादों तथा दार्शनिक चिन्तन की विविध विसंगतियों से परेशान होकर वे उब उठते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और मूर्खतावश यह निष्कर्ष निकालते हैं कि परम कारण जैसा कुछ नहीं है, अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शून्य है | ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्था में होते हैं | कुछ लोग भौतिकता में इतने आसक्त रहते हैं कि वे आध्यात्मिक जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं देते और कुछ लोग तो निराशावश सभी प्रकार के आध्यात्मिक चिन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अविश्र्वास करने लगते हैं | इस अन्तिम कोटि के लोग किसी न किसी मादक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके मति-विभ्रम को कभी-कभी आध्यात्मिक दृष्टि मान लिया जाता है | मनुष्य को भौतिक जगत् के प्रति आसक्ति की तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाना होता है – ये हैं आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा, आध्यात्मिक साकार रूप का भय तथा जीवन की हताशा से उत्पन्न शून्यवाद की कल्पना | जीवन की इन तीनों अवस्थाओं से छुटकारा पाने के लिए प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में भगवान् की शरण ग्रहण करना और भक्तिमय जीवन के नियम तथा विधि-विधानों का पालन करना आवश्यक है | भक्तिमय जीवन की अन्तिम अवस्था भाव या दिव्य इश्र्वरीय प्रेम कहलाती है | भक्तिरसामृतसिन्धु (१.४.१५-१६) के अनुसार भक्ति का विज्ञान इस प्रकार है –

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया


ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रूचिस्ततः |

अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यदञ्चति

साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः ||

"प्रारम्भ में आत्म-साक्षात्कार की समान्य इच्छा होनी चाहिए | इससे मनुष्य ऐसे व्यक्तियों की संगति करने का प्रयास करता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से उठे हुए हैं | अगली अवस्था में गुरु से दीक्षित होकर नवदीक्षित भक्त उसके आदेशानुसार भक्तियोग प्रारम्भ करता है | इस प्रकार सद्गुरु के निर्देश में भक्ति करते हुए वह समस्त भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाता है, उसके आत्म-साक्षात्कार में स्थिरता आती है और वह श्रीभगवान् कृष्ण के विषय में श्रवण करने के लिए रूचि विकसित करता है | इस रूचि से आगे चलकर कृष्णभावनामृत में आसक्ति उत्पन्न होती है जो भाव में अथवा भगवत्प्रेम के प्रथम सोपान में परिपक्व होती है | ईश्र्वर के प्रति प्रेम ही जीवन की सार्थकता है |" प्रेम-अवस्था में भक्त भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर लीन रहता है | अतः भक्ति की मन्द स्थिति से प्रामाणिक गुरु के निर्देश में सर्वोच्च अवस्था प्राप्त की जा सकती है और समस्त भौतिक आसक्ति, व्यक्तिगत आध्यात्मिक स्वरूप के भय तथा शून्यवाद से उत्पन्न हताशा से मुक्त हुआ जा सकता है | तभी मनुष्य को अन्त में भगवान् के धाम की प्राप्ति हो सकती है |