HI/BG 2.66

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥६६॥

शब्दार्थ

न अस्ति—नहीं हो सकती; बुद्धि:—दिव्य बुद्धि; अयुक्तस्य—कृष्णभावना से सम्बन्धित न रहने वाले में; न—नहीं; च—तथा; अयुक्तस्य—कृष्णभावना से शून्य पुरुष का; भावना—स्थिर चित्त (सुख में) ; न—नहीं; च—तथा; अभावयत:—जो स्थिर नहीं है उसके; शान्ति:—शान्ति; अशान्तस्य—अशान्त का; कुत:—कहाँ है; सुखम्—सुख।

अनुवाद

जो कृष्णभावनामृत में परमेश्र्वर से सम्बन्धित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं है | शान्ति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?

तात्पर्य

कृष्णभावनाभावित हुए बिना शान्ति की कोई सम्भावना नहीं हो सकती | अतः पाँचवे अध्याय में (५.२९) इसकी पुष्टि ही गई है कि जब मनुष्य यह समझ लेता है कि कृष्ण ही यज्ञ तथा तपस्या के उत्तम फलों के एकमात्र भोक्ता हैं और समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं तथा वे समस्त जीवों के असली मित्र हैं तभी उसे वास्तविक शान्ति मिल सकती है | अतः यदि कोई कृष्णभावनाभावित नहीं है तो उसके मन का कोई अन्तिम लक्ष्य नहीं हो सकता | मन की चंचलता का एकमात्र कारण अन्तिम लक्ष्य का अभाव है | जब मनुष्य को यह पता चल जाता है कि कृष्ण ही भोक्ता, स्वामी तथा सबके मित्र है, तो स्थिर चित्त होकर शान्ति का अनुभव किया जा सकता है | अतएव जो कृष्ण से सम्बन्ध न रखकर कार्य में लगा रहता है, वह निश्चय ही सदा दुखी और अशान्त रहेगा, भले ही वह जीवन में शान्ति तथा अध्यात्मिक उन्नति का कितना ही दिखावा क्यों न करे | कृष्णभावनामृत स्वयं प्रकट होने वाली शान्तिमयी अवस्था है, जिसकी प्राप्ति कृष्ण के सम्बन्ध से ही हो सकती है |