HI/720509 - रूपानुग को लिखित पत्र, होनोलूलू

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Letter to Rupanuga


इस्कॉन होनोलूलू,

9 मई, 1972

मेरे प्रिय रूपानुग,

कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुंम्हारा दिनांक 5 मई, 1972 का पत्र मिला और मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा है। मालुम पड़ता है कि तुम्हारे और कर्णधार के आंकड़ों के बीच भारी मतभेद है। उदाहरण के तौर पर, उसका कहना है कि पहली जनवरी, 1972 से, न्यु यॉर्क ने बीटीजी फंड के लिए मात्र 1243 डॉलर और बुक फंड के लिए मात्र 1538.20 डॉलर अदा किए हैं, जिससे बीटीजी व बुक फंड के लिए 4571.05 डॉलर व 5235.90 डॉलर बकाया रह जाता है। जबकी तुम्हारा कहना है कि तुम्हारा बीटीजी के प्रति केवल $1,620 है और बीकेएफ के लिए केवल 3,897 डॉलर. यदि तुम प्रतिदिन 2000 की दर से साहित्य विक्रय कर रहे हो, तो इन ऋणों के लिए इतनी कम राशी क्यों अदा की जा रही है? मासिक 60,000 साहित्य का मतलब है कि तुम्हें ऐकत्रित समूची राशी तबतक भेजनी चाहिए जबतक यह उधार पूरू तरह से न पट जाए। यह अच्छी बात नहीं है कि पूरे संघ के लिए मापदंड रखने वाले ऐसे बड़े मन्दिर भी अपने बिलों का भुगतान न करें। यह बहुत ही अवांछनीय है। मैं प्राधिकारिक मामलों से निवृत्त होने का प्रयास कर रहा हूँ। पर यदि मन्दिर प्रमुख व जीबीसी ऐसे उपद्रव खड़े करते रहेंगे तो मुझे शंति कैसे मिलेगी? यदि मामलों का निपटारा स्वतः होने लगेगा, तो मुझे शाति मिलेगी।

कर्णधार का कथन है कि पुस्तकों के बिलों के नियमित भुगतान के मामले में, न्यु यॉर्क ”विशेष रूप से अन्य सबसे बिलकुल ही अलग है” और बलि मर्दन ने मुझे बताया है कि तुम्हारा ”इन आर्थिक मामलों का निरीक्षण करने व इनकी नियमित रूप से जांच करने की ओर कोई रूझान नहीं है। और इसीलिए इन्हें एक कोषाध्यक्ष के सुपुर्द कर दिया गया है जो कि स्वयं उसके लिए बहुत योग्य नहीं है।” उसका सुझाव है कि तुम साप्ताहिक वस्तुसूचि बनाओ और बेची गईं पुस्तकों के लिए प्रति सप्ताह भुगतान करो। यह कैसे किया जाए, इसके लिए तुम उसकी सहायता ले सकते हो। तुम इन मामलों को इस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिए कि वे स्वतछ चलते जाएं और उनमे उत्तरोत्तर वृद्धि हो। मुझे नहीं पता कि वास्तविक स्थिति क्या है। वे सब एक बात कह रहे हैं और तुम कुछ और। लेकिन मैं चाहता हूँ कि इस परिस्थिति का तुरन्त ही निवारण किया जाए और आगे से, सभी साहित्यिक बिलों का तुम्हारे द्वारा तुरन्त भुगतान हो।

हां, मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि कुछ लोग युरोप से भारत भेजे जाएं। लेकिन मुझे ब्यौरे मिले हैं कि तुम्हारे द्वारा वहां भेजे गए 30 व्यक्तिगण ढ़ग से काम में नहीं लाए जा रहे हैं। तो जबतक मैं यह न सुन लूँ कि उनकी वहां पर अत्यधिक आवश्यकता है और कि तुम्हारे द्वारा पहले से भेजे जा चुके व्यक्ति अच्छची प्रकार से कार्रत हैं, वहां और लोगों को मत भेजो। अब मैं चाहता हूँ कि बजाए इसके कि हम आध्यात्मिक विषयवस्तु से रहित, केवल अपना बड़ी मात्रा में विस्तार करने मात्र मे उलझे रह जाएं, हमें अपने भक्तों को और स्वयं अपने आप को कृष्णभावनाभावित बनाना चाहिए। जैसे दूध को उबालने से वह गाढ़ा और मीठा बन जाता है। अब ऐसे ही करो। दूध को उबालो।

आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,

(हस्ताक्षरित)

ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी