HI/BG 2.26

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥२६॥

शब्दार्थ

अथ—यदि, फिर भी; च—भी; एनम्—इस आत्मा को; नित्य-जातम्—उत्पन्न होने वाला; नित्यम्—सदैव के लिए; वा—अथवा; मन्यसे—तुम ऐसा सोचते हो; मृतम्—मृत; तथा अपि—फिर भी; त्वम्—तुम; महा-बाहो—हे शूरवीर; न—कभी नहीं; एनम्—आत्मा के विषय में; शोचितुम्—शोक करने के लिए; अर्हसि—योग्य हो।

अनुवाद

किन्तु यदि तुम यह सोचते हो कि आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण) सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है |

तात्पर्य

सदा से दार्शनिकों का एक ऐसा वर्ग चला आ रहा है जो बौद्धों के ही समान यह नहीं मानता कि शरीर के परे भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है | ऐसा प्रतीत होता है कि जब भगवान् कृष्ण ने भगवद्गीता का उपदेश दिया तो ऐसे दार्शनिक विद्यमान थे और लोकायतिक तथा वैभाषिक नाम से जाने जाते थे | ऐसे दार्शनिकों का मत है कि जीवन के लक्षण भौतिक संयोग की एक परिपक्वास्था में ही घटित होते हैं | आधुनिक भौतिक विज्ञानी तथा भौतिकवादी दार्शनिक भी ऐसा ही सोचते हैं | उनके अनुसार शरीर भौतिक तत्त्वों का संयोग है और एक अवस्था ऐसी आती है जब भौतिक तथा रासायनिक तत्त्वों का संयोग से जीवन के लक्षण विकसित हो उठते हैं | नृतत्त्व विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है | सम्प्रति, अनेक छद्म धर्म – जिनका अमेरिका में प्रचार हो रहा है – इसी दर्शन का पालन करते हैं और साथ ही शून्यवादी अभक्त बौद्धों का अनुसरण करते हैं |

यदि अर्जुन को आत्मा का अस्तित्व में विश्र्वास नहीं था, जैसा कि वैभाषिक दर्शन में होता है तो भी उसके शोक करने का कोई कारण न था | कोई भी मानव थोड़े से रसायनों की क्षति के लिए शोक नहीं करता तथा अपना कर्तव्यपालन नहीं त्याग देता है | दूसरी ओर, आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक युद्ध में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए न जाने कितने टन रसायन फूँक देते हैं | वैभाषिक दर्शन के अनुसार आत्मा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है | अतः प्रत्येक दशा में चाहे अर्जुन इस वैदिक मान्यता को स्वीकार करता कि अणु-आत्मा का अस्तित्व है, या कि वह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता , उसके लिए शोक करने का कोई कारण न था | इस सिद्धान्त के अनुसार चूँकि पदार्थ से प्रत्येक क्षण असंख्य जीव उत्पन्न होते है और नष्ट होते रहते हैं, अतः ऐसी घटनाओं के लिए शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है | यदि आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता तो अर्जुन को अपने पितामह तथा गुरु के वध करने के पापफलों से डरने का कोई कारण न था | किन्तु साथ ही कृष्ण ने अर्जुन को व्यंगपूर्वक महाबाहु कह कर सम्बोधित किया क्योंकि उसे वैभाषिक सिद्धान्त स्वीकार नहीं था जो वैदिक ज्ञान के प्रतिकूल है | क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से था और वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते रहना ही उसके लिए शोभनीय था |