HI/BG 7.9

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 9

“पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्र्चास्मि विभावसौ |
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्र्चास्मि तपस्विषु || ९ ||”

शब्दार्थ

पुण्य:—मूल, आद्य; गन्ध:—सुगंध; पृथिव्याम्—पृथ्वी में; च—भी; तेज:—प्रकाश; च—भी; अस्मि—हूँ; विभावसौ—अग्नि में; जीवनम्—प्राण; सर्व—समस्त; भूतेषु—जीवों में; तप:—तपस्या; च—भी; अस्मि—हूँ; तपस्विषु—तपस्वियों में।.

अनुवाद

मैं पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ | मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ|

तात्पर्य

तात्पर्य :पुण्य का अर्थ है – जिसमें विकार न हो, अतः आद्य | इस जगत में प्रत्येक वस्तु में कोई न कोई सुगंध होती है, यथा फूल की सुगंध या जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु आदि की सुगंध | समस्त वस्तुओं में व्याप्त अदूषित भौतिक गन्ध, जो आद्य सुगंध है, वह कृष्ण हैं | इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का एक विशिष्ट स्वाद (रस) होता है और इस स्वाद को रसायनों के मिश्रण द्वारा बदला जा सकता है | अतः प्रत्येक मूल वस्तु में कोई न कोई गन्ध तथा स्वाद होता है | विभावसु का अर्थ अग्नि है | अग्नि के बिना न तो फैक्टरी चल सकती है, न भोजन पक सकता है | यह अग्नि कृष्ण है | अग्नि का तेज (ऊष्मा) भी कृष्ण ही है | वैदिक चिकित्सा के अनुसार कुपच का कारण पेट में अग्नि की मंदता है | अतः पाचन तक के लिए अग्नि आवश्यक है | कृष्णभावनामृत में हम इस बात से अवगत होते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा प्रत्येक सक्रीय तत्त्व, सारे रसायन तथा सारे भौतिक तत्त्व कृष्ण के कारण हैं | मनुष्य की आयु भी कृष्ण के कारण है | अतः कृष्ण कृपा से ही मनुष्य अपने को दीर्घालु या अल्पजीवी बना सकता है | अतः कृष्णभावनामृत प्रत्येक क्षेत्र में सक्रीय रहता है |