HI/BG 10.16

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥१६॥

शब्दार्थ

वक्तुम्—कहने के लिए; अर्हसि—योग्य हैं; अशेषेण—विस्तार में; दिव्या:—दैवी, अलौकिक; हि—निश्चय ही; आत्म—अपना; विभूतय:—ऐश्वर्य; याभि:—जिन; विभूतिभि:—ऐश्वर्यों से; लोकान्—समस्त लोकों को; इमान्—इन; त्वम्—आप; व्याह्रश्वय—व्याह्रश्वत होकर; तिष्ठसि—स्थित हैं।

अनुवाद

कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्र्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं |

तात्पर्य

इस श्लोक से लगता है कि अर्जुन भगवान् सम्बन्धी अपने ज्ञान से पहले से सन्तुष्ट है | कृष्ण-कृपा से अर्जुन को व्यक्तिगत अनुभव, बुद्धि तथा ज्ञान और मनुष्य को इन साधनों से जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, वह सब प्राप्त है, तथा उसने कृष्ण को भगवान् के रूप में समझ रखा है | उसे किसी प्रकार का संशय नहीं है, तो भी वह कृष्ण से अपनी सर्वव्यापकता की व्याख्या करने के लिए अनुरोध करता है | सामान्यजन तथा विशेषरूप से निर्विशेषवादी भगवान् की सर्वव्यापकता के विषय में अधिक विचारशील रहते हैं | अतः अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा किस प्रकार सर्वव्यापी रूप में विद्यमान रहते हैं | हमें यह जानना चाहिए कि अर्जुन सामान्य लोगों के हित के लिए यह पूछ रहा है |