HI/BG 14.27
श्लोक 27
- j
शब्दार्थ
ब्रह्मण:—निराकार ब्रह्मज्योति का; हि—निश्चय ही; प्रतिष्ठा—आश्रय; अहम्—मैं हूँ; अमृतस्य—अमत्र्य का; अव्ययस्य—अविनाशी का; च—भी; शाश्वतस्य—शाश्वत का; च—तथा; धर्मस्य—स्वाभाविक स्थिति (स्वरूप) का; सुखस्य—सुख का; ऐकान्तिकस्य—चरम, अन्तिम; च—भी।
अनुवाद
और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमर्त्य, अविनाशी तथा शाश्र्वत है और चरम सुख का स्वाभाविक पद है |
तात्पर्य
ब्रह्म का स्वरूप है अमरता, अविनाशिता, शाश्र्वतता तथा सुख | ब्रह्म तो दिव्य साक्षात्कार का शुभारम्भ है | परमात्मा इस दिव्य साक्षात्कार की मध्य या द्वितीय अवस्था है और भगवान् परम सत्य के चरम साक्षात्कार हैं | अतएव परमात्मा तथा निराकार ब्रह्म दोनों ही परम पुरुष के भीतर रहते हैं | सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि प्रकृति परमेश्र्वर की अपरा शक्ति की अभिव्यक्ति है | भगवान् इस अपरा प्रकृति में परा प्रकृति को गर्भस्थ करते हैं और भौतिक प्रकृति के लिए यह आध्यात्मिक स्पर्श है | जब इस प्रकृति द्वारा बद्धजीव आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन करना प्रारम्भ करता है, तो वह इस भौतिक जगत् के पद से ऊपर उठने लगता है और क्रमशः परमेश्र्वर के ब्रह्म-बोध तक उठ जाता है | ब्रह्म-बोध की प्राप्ति आत्म-साक्षात्कार की दिशा में प्रथम अवस्था है | इस अवस्था में ब्रह्मभूत व्यक्ति भौतिक पद को पार कर जाता है, लेकिन ब्रह्म-साक्षात्कार में पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता | यदि वह चाहे तो इस ब्रह्मपद पर बना रह सकता है और धीरे-धीरे परमात्मा के साक्षात्कार को और फिर भगवान् के साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है | वैदिक साहित्य में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं | चारों कुमार पहले निराकार ब्रह्म में स्थित थे, लेकिन क्रमशः वे भक्तिपद तक उठ गए | जो व्यक्ति निराकार ब्रह्मपद से ऊपर नहीं उठ पाता, उसके नीचे गिरने का डर बना रहता है | श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि भले ही कोई निराकार ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त कर ले, किन्तु इससे ऊपर उठे बिना तथा परम पुरुष के विषय में सूचना प्राप्त किये बिना उसकी बुद्धि विमल नहीं हो पाती | अतएव ब्रह्मपद तक उठ जाने के बाद भी यदि भगवान् की भक्ति नहीं की जाती, तो नीचे गिरने का भय बना रहता है | वैदिक भाषा में यह भी कहा गया है – रसो वै सः; रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति – रस के आगार भगवान् श्रीकृष्ण को जान लेने पर मनुष्य वास्तव में दिव्य आनन्दमय हो जाता है (तैत्तिरीय-उपनिषद् २.७.१ ) |परमेश्र्वर छहों ऐश्र्वर्यों से पूर्ण हैं और जब भक्त निकट पहुँचता है तो इन छह ऐश्र्वर्यों का आदान-प्रदान होता है | राजा का सेवक लगभग राजा के समान ही पद का भोग करता है | इस प्रकार शाश्र्वत सुख, अविनाशी सुख तथा शाश्र्वत जीवन भक्ति के साथ-साथ चलते हैं | अतएव भक्ति में ब्रह्म-साक्षात्कार या शाश्र्वतता या अमरता सम्मिलित रहते हैं | भक्ति में प्रवृत्त व्यक्ति में ये पहले से ही प्राप्त रहते हैं |
जीव यद्यपि स्वभाव से ब्रह्म होता है, लेकिन उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा रहती है, जिसके कारण वह नीचे गिरता है | अपनी स्वाभाविक स्थिति में जीव तीनों गुणों से परे होता है | लेकिन प्रकृति के संसर्ग से वह अपने को तीनों गुणों-सतो, रजो तथा तमोगुण – में बाँध लेता है |इन्हीं तीनों गुणों के संसर्ग के कारण उसमें भौतिक जगत् पर प्रभुत्व जताने की इच्छा होती है | पूर्ण कृष्णभावनामृत में भक्ति में प्रवृत्त होने पर वह दिव्य पद को प्राप्त होता है और उसमें प्रकृति को वश में करने की जो इच्छा होती है, वह दूर हो जाती है | अतएव भक्तों की संगति कर के भक्ति की नौ विधियाँ – श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि का अभ्यास करना चाहिए | धीरे-धीरे ऐसी संगति से तथा गुरु के प्रभाव से मनुष्य की प्रभुता जताने वाली इच्छा समाप्त हो जाएगी और वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में दृढ़तापूर्वक स्थित हो सकेगा | इस विधि की संस्तुति इस अध्याय के बाइसवें श्लोक से लेकर इस अन्तिम श्लोक तक की गई है | भगवान् की भक्ति अतीव सरल है, मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा में लगे, श्रीविग्रह को अर्पित भोजन का उच्छिष्ट खाए, भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ाये गये पुष्पों की सुगंध सूँघे, भगवान् के लीलास्थलों का दर्शन करे, भगवान् के विभिन्न कार्यकलापों और उनके भक्तों के साथ प्रेम-विनिमय के बारे में पढ़े, सदा हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे || इस महामन्त्र की दिव्य ध्वनि का कीर्तन करे और भगवान् तथा उनके भक्तों के अविर्भाव तथा तिरोधानों को मनाने वाले दिनों में उपवास करे | ऐसा करने से मनुष्य समस्त भौतिक गतिविधियों से विरक्त हो जायेगा | इस प्रकार जो व्यक्ति अपने को ब्रह्मज्योति या ब्रह्म-बोध के विभिन्न प्रकारों में स्थित कर सकता है, वह गुणात्मक रूप से भगवान् के तुल्य है |
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के चौदहवें अध्याय “प्रकृति के तीन गुण” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |