HI/BG 15.8

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 8

k

शब्दार्थ

शरीरम्—शरीर को; यत्—जिस; अवाह्रश्वनोति—प्राह्रश्वत करता है; यत्—जिस; च—तथा; अपि—भी; उत्क्रामति—त्यागता है; ईश्वर:—शरीर का स्वामी; गृहीत्वा—ग्रहण करके; एतानि—इन सबको; संयाति—चला जाता है; वायु:—वायु; गन्धान्—महक को; इव—स²श; आशयात्—स्रोत से।

अनुवाद

इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है ।

तात्पर्य

यहाँ पर जीव को ईश्र्वर अर्थात् अपने शरीर का नियामक कहा गया है । यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है । इस विषय में उसे थोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है । शरीर में जो परिवर्तन होता है, वह उस पर निर्भर करता है । मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है । यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है । यदि वह अपनी चेतना दैवी गुणों में स्थित करता है, तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है । और यदि वह कृष्णभावनामृत में होता है, तो वह आध्यात्मिक जगत में कृष्ण लोक को जाता है, जहाँ उसका सान्निध्य कृष्ण से होता है । यह दावा मिथ्या है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है । आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है, और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं । कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर यह शरीर त्यागना होता है । यहाँ यह कहा गया है कि सूक्ष्म शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन करता है, अगले जीवन में दूसरा शरीर निर्माण करता है । एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण की प्रक्रिया तथा शरीर में रहते हुए संघर्ष करने को कर्षति अर्थात् जीवन संघर्ष कहते हैं ।