HI/BG 18.7

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 7

j

शब्दार्थ

नियतस्य—नियत, निॢदष्ट (कार्य) का; तु—लेकिन; सन्न्यास:—संन्यास, त्याग; कर्मण:—कर्मों का; न—कभी नहीं; उपपद्यते—योग्य होता है; मोहात्—मोहवश; तस्य—उसका; परित्याग:—त्याग देना; तामस:—तमोगुणी; परिकीॢतत:—घोषित किया जाता है।

अनुवाद

निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए । यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है ।

तात्पर्य

जो कार्य भौतिक तुष्टि के लिए किया जाता है, उसे अवश्य ही त्याग दे, लेकिन जिन कार्यों से आध्यात्मिक उन्नति हो, यथा भगवान् के लिए भोजन बनाना, भगवान् को भोग अर्पित करना, फिर प्रसाद ग्रहण करना, उसकी संस्तुति की जाती है । कहा जाता है कि संन्यासी को अपने लिए भोजन नहीं बनाना चाहिए । लेकिन अपने लिए भोजन पकाना भले ही वर्जित हो, परमेश्र्वर के लिए भोजन पकाना वर्जित नहीं है । इसी प्रकार अपने शिष्य की कृष्णभावनामृत में प्रगति करने में सहायक बनने के लिए संन्यासी विवाह-यज्ञ सम्पन्न करा सकता है । यदि कोई ऐसे कार्यों का परित्याग कर देता है, तो यह समझना चाहिए कि वह तमोगुण के अधीन है ।