HI/BG 18.46
श्लोक 46
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शब्दार्थ
यत:—जिससे; प्रवृत्ति:—उद्भव; भूतानाम्—समस्त जीवों का; येन—जिससे; सर्वम्—समस्त; इदम्—यह; ततम्—व्याह्रश्वत है; स्व-कर्मणा—अपने कर्म से; तम्—उसको; अभ्यच्र्य—पूजा करके; सिद्धिम्—सिद्धि को; विन्दति—प्राह्रश्वत करता है; मानव:—मनुष्य।
अनुवाद
जो सभी प्राणियों का उदगम् है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।
तात्पर्य
जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में बताया जा चुका है, सारे जीव परमेश्र्वर के भिन्नांश हैं । इस प्रकार परमेश्र्वर ही सभी जीवों के आदि हैं । वेदान्त सूत्र में इसकी पुष्टि हुई है-जन्मा द्यस्य यतः । अतएव परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के जीवन के उद्गम हैं । जैसा कि भगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा गया है, परमेश्र्वर अपनी परा तथा अपरा, इन दो शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं । अतएव मनुष्य को चाहिए कि उनकी शक्तियों सहित भगवान् की पूजा करे । सामान्यतया वैष्णव जन परमेश्र्वर की पूजा उनकी अन्तरंगा शक्ति समेत करते हैं । उनकी बहिरंगा शक्ति उनकी अंतरंगा शक्ति का विकृत प्रतिबिम्ब है । बहिरंगा शक्ति पृष्ठ भूमि है, लेकिन परमेश्र्वर परमात्मा रूप में पूर्णांश का विस्तार करके सर्वत्र स्थित हैं । वे सर्वत्र समस्त देवताओं, मनुष्यों और पशुओं के परमात्मा हैं । अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि परमेश्र्वर का भिन्नांश अंश होने के कारण उसका कर्तव्य है कि वह भगवान् की सेवा करे । प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत में भगवान् की भक्ति करनी चाहिए । इस श्लोक में इसी की संस्तुति की गई है ।
प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि इन्द्रियों के स्वामी हृषिकेश द्वारा वह विशेष कर्म में प्रवृत्त किया गया है । अतएव जो जिस कर्म में लगा है, उसी के फल के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण को पूजना चाहिए । यदि वह इस प्रकार से कृष्णभावनामय हो कर सोचता है, तो भगवत्कृपा से वह पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है । यही जीवन की सिद्धि है । भगवान् ने भगवद्गीता में (१२.७) कहा है – तेषामहं समुद्धर्ता । परमेश्र्वर स्वयं ऐसे भक्त का उद्धार करते हैं । यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है । कोई चाहे जिस वृत्ति परक कार्य में लगा हो, यदि वह परमेश्र्वर की सेवा करता है, तो उसे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त होती है ।