HI/BG 18.73
श्लोक 73
- j
शब्दार्थ
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; नष्ट:—दूर हुआ; मोह:—मोह; स्मृति:—स्मरण शक्ति; लब्धा—पुन: प्राह्रश्वत हुई; त्वत्-प्रसादात्—आपकी कृपा से; मया—मेरे द्वारा; अच्युत—हे अच्युत कृष्ण; स्थित:—स्थित; अस्मि—हूँ; गत—दूर हुए; सन्देह:—सारे संशय; करिष्ये—पूरा करूँगा; वचनम्—आदेश को; तव—तुम्हारे।
अनुवाद
अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ |
तात्पर्य
जीव जिसका प्रतिनिधित्व अर्जुन कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्र्वर के आदेशानुसार कर्म करे | वह आत्मानुशासन (संयम) के लिए बना है | श्रीचैतन्य महाप्रभु का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्र्वर के नित्य दास के रूप में है | इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है | लेकिन परमेश्र्वर की सेवा करने से वह ईश्र्वर का मुक्त दास बनता है | जीव का स्वरूप सेवक के रूप में हैं | उसे माया या परमेश्र्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है | यदि वह परमेश्र्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है | लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रूप से बन्धन में पड़ जाता है | इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है | वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है | यही मोह कहलाता है | मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिए परमेश्र्वर की शरण ग्रहण करता है | जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्र्वर है | जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्र्वर है | वह इतना मुर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्र्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता | वह इस पर विचार नहीं करता | इसलिए यही माया का अन्तिम पाश होता है | वस्तुतः माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकृष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिए सहमत होना है |
इस श्लोक में मोह शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है | मोह ज्ञान का विरोधी होता है | वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्र्वत सेवक है | लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है , क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है | यह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है | इस मोह के दूर होने पर मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करने के लिए राजी हो जाता है |
कृष्ण के आदेशानुसार कर्म करना कृष्णभावनामृत है | बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्र्वर स्वामी हैं, जो ज्ञानमय हैं और सर्वसम्पत्तिवान हैं | वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते हैं | वे सब के मित्र हैं और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते हैं | वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं | वे अक्षय काल के नियन्त्रक हैं और समस्त ऐश्र्वर्यों एवं शक्तियों से पूर्ण हैं | भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते हैं | जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता है | लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया | वह यह समझ गया कि कृष्ण केवल उसके मित्र ही नहीं बल्कि भगवान् हैं और वह कृष्ण को वास्तव में समझ गया | अतएव भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है कृष्ण को वास्तविकता के साथ जानना | जब व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है , तो वह स्वभावतः कृष्ण को आत्मसमर्पण करता है | जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिए कृष्ण की योजना थी, तो उसने कृष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया | उसने पुनः भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिए अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया |