HI/Prabhupada 0345 - कृष्ण हर किसी के ह्रदय में बैठे हैं
Lecture on SB 1.15.1 -- New York, November 29, 1973
हम में से हर कोई बहुत नज़दीकी से कृष्ण के साथ जुड़ा है और कृष्ण हर किसी के ह्रदय में बैठे हैं । कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे बस इंतज़ार कर रहे हैं, "कब यह दुष्ट मेरी तरफ अपना चेहरा करेगा ।" वे बस, वे इतने दयालु हैं । लेकिन हम जीव, हम इतने बदमाश हैं, हम कृष्ण को छोड़कर बाकि सब कुछ की तरफ अपना चेहरा मोडते हैं । यह हमारी स्थिति है । हम इतने सारे विचारों के साथ, खुश होना चाहते हैं । हर कोई अपना ही विचार बन रहा है, "अब यह है ..." लेकिन ये दुष्ट, वे नहीं जानते कि, खुशी प्राप्त करने के लिए वास्तविक प्रक्रिया क्या है, वह कृष्ण हैं । वे यह नहीं जानते । न ते विदु: स्वार्थ गतिम हि विष्णुम दुराशया ये बहिर अर्थ मानिन: (श्री भ ७।५।३१) तुम्, तुम अपने देश में देख सकते हो, वे बहुत सी बातें करने की कोशिश कर रहे हैं, इतने सारे गगनचुंबी इमारतें, कई मोटर कारें, इतने बड़े बड़े शहर, लेकिन कोई खुशी नहीं है । क्योंकि उन्हे पता नहीं है कि क्या लुप्त है । हम दे रहे हैं वह लु्पत बात । यहाँ हैं "तुम कृष्ण को अपनाअो अौर तुम खुश हो जाअोगे ।" यह हमारा कृष्ण भावनामृत है । कृष्ण और जीव, वे बहुत नज़दीकी से जुड़े हैं । जैसे पिता और पुत्र, या दोस्त और दोस्त है, या मालिक और दास की तरह । हम बहुत ज्यादा नज़दीकी से जुड़े हैं । लेकिन क्योंकि हम कृष्ण के साथ हमारे अंतरंग रिश्ते को भूल गए हैं, और इस भौतिक संसार में सुखी होने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए हमे< इतना कष्टों से गुजरना पडता है । यह स्थिति है । कृष्ण भुलिय जीव भोग वंछा करे ।
हम जीव, हम इस भौतिक दुनिया में सुखी होने की कोशिश कर रहे हैं "क्यों तुम इस भौतिक संसार में हो, क्यों तुम आध्यात्मिक दुनिया में नहीं हो ?" आध्यात्मिक दुनिया, कोई भी भोक्ता नहीं बन सकता है । वह केवल परम, भोक्तारम यज्ञ-तपसाम सर्व ... (भ गी ५।२९) कोई गलती नहीं है । वहां भी जीव हैं, लेकिन वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि असली भोक्ता, मालिक, श्री कृष्ण हैं । यही आध्यात्मिक साम्राज्य है । इसी तरह, यहां इस भौतिक संसार में भी, अगर हम अच्छी तरह से समझ जाते है कि हम भोक्ता नहीं हैं, कृष्ण भोक्ता हैं, तो फिर वह आध्यात्मिक दुनिया है । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन, हर किसी को समझाने की कोशिश कर रहा है कि हम, हम भोक्ता नहीं हैं, भोक्ता कृष्ण हैं । जैसे, यह पूरा शरीर, भोक्ता पेट है, और हाथ और पैर और आँखें और कान और दिमाग और सब कुछ, इन्हे सुखद बातें का पता लगाना में और पेट में डालने में लगे रहना चाहिए । यह स्वाभाविक है । इसी तरह, हम भगवान, या कृष्ण का अभिन्न अंग हैं, हम भोक्ता नहीं हैं ।