HI/600328 - डॉ. वाय. जी. नाइक एम.एससी., पीएच.डी को लिखित पत्र, दिल्ली

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda



मार्च २८, १९६० ,

डॉ. वाय. जी. नायक एम.एससी., पीएच.डी.,
प्रधान अध्यापक गुजरात कॉलेज,
डीन, विज्ञान संकाय,
गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद,

प्रिय डॉ. नाइक,

आपका पत्र दिनांकित २० मार्च १९६० को मेरे मुख्यालय (वृंदावन) से पुनर्निर्देशित किया गया है और मुझे इसके विषय को पढ़ कर बहुत प्रोत्साहन मिला, जो कि मूल्यवान जानकारी से भरी है। इस संदर्भ के तहत, मेरे लेख में चर्चा की गई विषय वस्तु अधिकृत है जहाँ तक यह गीता के निष्कर्ष को संदर्भित करता है।

मैं आपको यह भी सूचित करना चाहता हूं कि मेरी अवधारणा प्रतिद्रव्य वही है जिसे आप भौतिक पदार्थ से परे कहते हैं। तकनीकी रूप से यह हो सकता है कि मैं भौतिक विज्ञानी द्वारा इस्तेमाल किए गए सटीक शब्द को व्यक्त नहीं कर सकता हूं, लेकिन मैंने इस बात को स्पष्टता से समझाने की कोशिश की है और जिसे आप एंटी-मटीरियल कहते हैं, वह आत्मा है। लेकिन आत्मा अपरा नहीं है, जैसा कि आपने बताया है। भगवद-गीता में सर्वोच्च सत्य या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, पारलौकिक पुरुष हैं और दो उर्जाएं अर्थात् परा और अपरा उन्हीं से निकली हैं। अपरा या निकृष्ट भौतिक ऊर्जा में भौतिक विज्ञान की दृष्टि से कई अन्य तत्व पदार्थ शामिल हो सकते हैं जैसे, एंटी-मैटर, प्रोटॉन इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि, लेकिन भगवद गीता के अधिकार के अनुसार वे सब निकृष्ट ऊर्जा से निर्मित हैं जिसे अपरा प्रकृति कहा जाता हैं। अपरा प्रकृति स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ से युक्त हैं जैसे मन, अहंकार और बुद्धि। आत्मा इन सभी से पारलौकिक है। आध्यात्मिक शक्ति परा प्रकृति, संपूर्ण आत्मा से एक और साथ ही साथ अलग है। गुणात्मक रूप से वे एक हैं लेकिन मात्रात्मक रूप से वे अलग हैं। ब्रह्म की किरण सर्वोच्च व्यक्ति की प्रभा है।

आपने निराकार ब्रह्म को दिव्य ऊर्जा के रूप में परिभाषित किया है। ब्रह्म संहिता में इसके वर्णन के अनुसरण में मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ, मैं अगले अंक में “ग्रहों की प्रणाली की विविधता” का एक लेख प्रकाशित करने जा रहा हूँ जिसमें ब्रह्म संहिता का संदर्भ है।

भागवत पुराण के अनुसार सर्वोच्च सत्य की समझ तीन चरणों में होती है अर्थात् अवैयक्तिक ब्रह्म या निराकार निरपेक्ष। परमतत्व या ब्रह्म का स्थानीयकृत पहलू। परमाणु के न्यूट्रॉन भाग को परमात्मा के प्रतिनिधित्व के रूप में लिया जा सकता है जो परमाणु में भी प्रवेश करते हैं। ब्रह्म-संहिता में इसका वर्णन है। लेकिन अंततः सर्वोच्च दिव्य व्यक्ति को सर्वाकर्षक व्यक्ति (कृष्ण) के रूप में अनुभव किया जाता है जो ऐश्वर्य, वीरता, सौंदर्यता, यश, ज्ञान और वैराग्य की सभी अचिंतनीय शक्तियों से परिपूर्ण हैं। जब वे मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं तब यह छह शक्तियाँ श्री राम और श्रीकृष्ण द्वारा पूरी तरह प्रदर्शित की जाती हैं। मानव जाति का केवल एक वर्ग, जो शुध्द भक्त हैं, उन्हें प्राधिकरित शास्त्रों के अनुसार पहचान सकता है लेकिन अन्य लोग भौतिक ऊर्जा के प्रभाव में हतप्रभ हैं। इसलिए निरपेक्ष सत्य निरपेक्ष व्यक्ति है जिनका कोई अन्य समान या उच्च प्रतिस्पर्धी व्यक्ति नहीं है। निराकार ब्रह्म किरणें उनके दिव्य शरीर की किरणें हैं जैसा कि सूर्य की किरणें सूर्य ग्रह से निकलती हैं।

विष्णु पुराण के अनुसार भौतिक ऊर्जा को अविद्या या अजान कहा जाता है, जो इन्द्रियतृप्ति की फलदायक गतिविधियों में प्रदर्शित होती है। परंतु जीवित प्राणी एंटी-मटीरियल ऊर्जा या आध्यात्मिक ऊर्जा के समूह से संबंधित है, जबकि उसके पास भोग के लिए भौतिक ऊर्जा द्वारा भ्रमित और फंसने की प्रवृत्ति है।

इस अर्थ में जीवात्मा सकारात्मक ऊर्जा है जबकि भौतिक पदार्थ नकारात्मक ऊर्जा है। यह भौतिक पदार्थ श्रेष्ठ आध्यात्मिक या एंटी-मटीरियल ऊर्जा के संपर्क में आए बिना विकसित नहीं होता है। आध्यात्मिक ऊर्जा पूर्ण आत्मा का अंश है।

वैसे भी जीव द्वारा प्रदर्शित इस आध्यात्मिक ऊर्जा की विषय वस्तु निस्संदेह एक साधारण व्यक्ति के लिए बहुत जटिल बात है। साधारण मनुष्य इसलिए इस विषय में चकित है। कभी-कभी वह आंशिक रूप से अपूर्ण इंद्रियों के माध्यम से इसे समझता है और कभी-कभी वह इसे जानने में पूरी तरह विफल रहता है। इसलिए सबसे अच्छी बात यह होगी कि श्रीकृष्ण के सर्वोच्च अधिकारी या उनके भक्त प्रतिनिधि जो गुरु-शिष्य परम्परा में आते हैं, उनसे इस गंभीर विषय को सुनना। भगवद-गीता सभी उपनिषदों और वेदांत का सार है।

मुझे यह जानकर खुशी हुई कि आपको गीता के लिए उच्चतम मत मिला है। मैं सिर्फ गीता के निष्कर्ष को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूं जो बिना किसी काल्पनिक व्याख्याओं के साथ समझौता किए बिना है। हमें अधिकृत शिष्य परम्परा से गीता का पाठ सीखना होगा जैसा कि किताब में बताया गया है (चतुर्थ अध्याय)। दुर्भाग्य से हर कोई, जो उस परम्परा में नहीं है, वह गीता को अपने तरीके से समझाने की कोशिश करता है और यह प्रक्रिया लोगों को गुमराह करती है। हमें इस विघटनकारी प्रवृत्ति का प्रतिकार करना होगा और उन्हें सही दिशा में लाना होगा।

यदि आप मेरे मिशन (लीग ऑफ़ डिवोटीज़) में शामिल होते हैं तो मुझे बहुत खुशी होगी और आपका अनुकूल उत्तर मिलने पर मैं आपको सूचीपत्र भेजूंगा। आप जैसे विद्वान व्यक्ति को इस नेक प्रयास में शामिल होना चाहिए और मदद करनी चाहिए। भारत की सांस्कृतिक विरासत की आपकी सराहना मेरे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक है। आइए हम एक संगठित तरीके और भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रचारित दिव्य प्रेम की अनुशंसित प्रक्रिया के माध्यम से इस महान सांस्कृतिक विरासत को दुनिया में संयुक्त रूप से वितरित करें। कृपया जहाँ तक संभव हो मेरी मदद करने का प्रयास करें। रुचि के साथ आपके जवाब की प्रतीक्षा है। आशा है कि आप अच्छे हैं।

आपका भवदीय,

ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी