"समझने की बात यह है कि हम कृष्ण से शाश्वत रूप से सम्बन्धित हैं। इस शाश्वत सम्बन्ध को भूल कर हम भौतिक शारीरिक सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं जो कि मैं नहीं हूँ। इसलिए मुझे अपनी क्रियायों को बदल कर, उन क्रियायों में लगना होगा जो सीधे-सीधे कृष्ण से सम्बन्धित हैं। इसे ही कृष्ण भावनामृत में कार्य करना कहते हैं। कृष्ण से पूर्णतया प्रेम करना ही, कृष्ण भावनामृत के विकास का अन्तिम चरण है। जब हम भगवद् प्रेम, कृष्ण प्रेम के उस स्तर पर पहुँच जाते हैं तो हम सभी से प्रेम करते हैं क्योंकि कृष्ण सभी में विद्यमान हैं। इस केन्द्रित बिन्दु पर आये बिना, भौतिक रूप में समानता, बंधुत्व और भाईचारे की धारणा रखना, केवल धोखा देने वाली बातें है। वह संभव नहीं है।"
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