HI/661130 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद न्यूयार्क में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"भक्ति में यह आशा नहीं करनी चाहिए कि हमारी पीड़ा ग्रहात् भौतिक स्थिति में सुधार आ जायेगा या शायद मैं भी इस भौतिक बंधन से मुक्त हो जाऊँगा, तो वह भी एक प्रकार से इन्द्रियों की तृप्ति करना है। यदि मैं इसी बंधंन से ही मुक्त होना चाहता हूँ, जैसे कि योगी या ज्ञानी करने का प्रयास करते हैं। वे भी इस भौतिक बंधंन से छुटकारा पाना चाहते हैं। लेकिन भक्ति योग में ऐसी कोई इच्छा नहीं रहती क्योंकि वह शुद्ध प्रेम है। वहाँ किसी भी लाभ की इच्छा नहीं होती। नहीं! यह कोई लाभ प्राप्त करने का कारोबार नहीं है। ऐसा नहीं कि जब तक मुझे बदले में कुछ न मिले, मैं कृष्ण भावनामृत में भक्ति नहीं करूँगा। भक्ति में लाभ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।"
661130 - Lecture CC Madhya 20.142 - New York