HI/670317 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions

 
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670317SB-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|अगर कोई अपनी भक्तिपूर्ण सेवा कृष्णा भावनामृत मे रहकर, आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में करता है, तो धीरे-धीरे वह रति बन जाता है। "रति का अर्थ है, प्रभु के प्रति स्नेह, आत्मीयता, लगाव। अब हमें इस बात के लिए लगाव हो गया है। हम प्रगति करते हैं, हम धीरे-धीरे भौतिक लगाव से मुक्त हो जाते हैं और उस स्तिथि पर आते हैं जहा हमारा भगवान के प्रति पूर्ण लगाव हो जाता है। इसलिए लगाव एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मैं आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। मैं या तो इस भौतिक स्तर से जुड़ा रहूंगा या मैं आत्मा से जुड़ा रहूँगा। यदि मैं आत्मा से जुड़ा नहीं हूं, तो मुझे भौतिक स्तर से जुड़ा होना चाहिए। और अगर मैं आत्मा से जुड़ा हुआ हूं, तो मेरा भौतिक लगाव दूर हो गया है। यह प्रक्रिया है। |Vanisource:670317 - Lecture SB 07.07.32-35 - San Francisco|670317 - प्रवचन स.बी. ०७.०७. ३२-३५ - सैन फ्रांसिस्को}}
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Latest revision as of 06:57, 1 May 2022

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"यदि कोई अपनी भक्तिपूर्ण सेवा कृष्ण भावनामृत होकर, तथा प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में रहकर करता है, तो धीरे-धीरे वह रति बन जाता है। "रति का अर्थ है, प्रभु के प्रति स्नेह, आत्मीयता, आसक्ति।" अब हम इस बात के लिए आसक्त हो गए हैं। हम प्रगति करते हैं, हम धीरे-धीरे भौतिक आसक्ति से मुक्त हो जाते हैं और उस स्तर पर आते हैं, जहाँ हम भगवान के प्रति पूर्ण आसक्त हो जातें हैं। अतः आसक्ति एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। मैं आसक्ति से मुक्त नहीं हो सकता। मैं या तो इस भौतिक स्तर से जुड़ा रहूंगा या आत्मा से जुड़ा रहूँगा। यदि मैं आत्मा से नहीं जुड़ता हूँ, तो मुझे भौतिक स्तर से जुड़ा हुआ होना चाहिए। और यदि मैं आत्मा से जुड़ता हूँ, तो मेरी भौतिक आसक्ति चली जाएगी। यह ही प्रक्रिया है।"
670317 - प्रवचन स.बी. ०७.०७. ३२-३५ - सैन फ्रांसिस्को