HI/670416b प्रवचन - श्रील प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
“रोगी अवस्था में तुम्हारी “मैं (अहं)” की पहचान अलग होती है। कभी एकाएक आवेग में, तुम (स्वयं को) भूल जाते हो; बल्कि यही विस्मृति है । कभी कभी यदि तुम, मेरा मतलब है, दिमागी तौर से विक्षिप्त होते हो, तब हम अपने सम्बन्ध के बारे में सभी कुछ भूल जाते हैं । परन्तु जब तुम ठीक हो जाते हो, तुमको स्मरण होता है, “ ओह, अपने उस भ्रम से मैं भुलावे में था । हाँ । इसलिए तुम्हारा “मैं” सदैव रहता है । यह “मैं”, यह “मैं”, स्मरण होने पर शुद्ध हो जाता है । इसलिए अहंकार को शुद्ध करना होगा । अहंकार का नाश नहीं करना है । और उसका विनाश नहीं किया जा सकता, न हन्यते हन्यमाने शरीरे (भगवदगीता २.२०), क्योंकि वह सनातन है । तुम अहंकार को कैसे मार सकते हो ? यह संभव नहीं है । इसलिए तुम्हें अहंकार को शुद्ध करना है । जो अंतर है…, वह अंतर नकली और असली अहंकार के मध्य है । ठीक जिस प्रकार अहं ब्रह्मास्मि, अहम्....”मैं ब्रह्म हूँ” । ओह ! यह भी अहंकार है । यह जो, यह वैदिक मान्यता की मैं ब्रह्म हूँ मैं यह भौतिक पञ्च-भूत नहीं हूँ,” तो यह अहंकार शुध्द है, कि “मैं यह (ब्रह्म) हूँ” । इसलिए वह “मैं” सदैव रहता है । भ्रम में या प्रमाद या स्वप्न या स्वस्थ अवस्था में, “मैं” सदैव रहता है।”
          670416b प्रवचन श्री चैतन्य चरितामृत आदिलीला ०७.१०९-११४

670416 - प्रवचन CC Adi 07.109-114 - न्यूयार्क