HI/680110 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद लॉस एंजेलेस में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions

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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680110SB-LOS_ANGELES_ND_01.mp3</mp3player>|"हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि हम कैसे गठित होते हैं। भगवद् गीता हमारी संवैधानिक स्थिति को बहुत अच्छी तरह से समझाती है: इन्द्रियाणि पराण्याहु: ([[Vanisource:BG 3.42 (1972)|भ.गी. ३.४२]]) इन्द्रियाणि। इन्द्रियाणि का अर्थ है इंद्रियाँ। मेरा भौतिक अस्तित्व क्या है? मैं इस दुनिया में हूं। किस लिए? मेरी इंद्रियों की संतुष्टि के लिए। बस इतना ही। यह पहली संवैधानिक स्थिति है। प्रत्येक जानवर, प्रत्येक जीव, खाने, सोने और बचाव और संभोग के लिए व्यस्त है। इसका मतलब है कि शारीरिक आवश्यकताएं, इंद्रियां। सबसे पहले, हमारे अस्तित्व का प्रमुख कारक इंद्रियां हैं। इसलिए भगवद् गीता कहती है, इन्द्रियाणि पराण्याहु:। मेरे भौतिक अस्तित्व का अर्थ है इंद्रिय भोग। बस इतना ही।"|Vanisource:680110 - Lecture SB 01.05.02 - Los Angeles|680110 - प्रवचन श्री.भा. ०१.०५.०२ - लॉस एंजेलेस}}
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Latest revision as of 07:03, 13 May 2022

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि हम कैसे गठित होते हैं। भगवद् गीता हमारी संवैधानिक स्थिति को बहुत अच्छी तरह से समझाती है: इन्द्रियाणि पराण्याहु: (भ.गी. ३.४२) इन्द्रियाणि। इन्द्रियाणि का अर्थ है इंद्रियाँ। मेरा भौतिक अस्तित्व क्या है? मैं इस दुनिया में हूं। किस लिए? मेरी इंद्रियों की संतुष्टि के लिए। बस इतना ही। यह पहली संवैधानिक स्थिति है। प्रत्येक जानवर, प्रत्येक जीव, खाने, सोने और बचाव और संभोग के लिए व्यस्त है। इसका अर्थ है कि शारीरिक आवश्यकताएं, इंद्रियां। सबसे पहले, हमारे अस्तित्व का प्रमुख कारक इंद्रियां हैं। इसलिए भगवद् गीता कहती है, इन्द्रियाणि पराण्याहु:। मेरे भौतिक अस्तित्व का अर्थ है इंद्रिय भोग। बस इतना ही।"
680110 - प्रवचन श्री.भा. ०१.०५.०२ - लॉस एंजेलेस