HI/680614 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद मॉन्ट्रियल में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions

 
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680614BG-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|"प्रकृति का नियम आप अवज्ञा नहीं कर सकते। यह आप पर लागू होगा। प्रकृति के नियम की तरह, सर्दी का मौसम आप इसे बदल नहीं सकते। यह आप पर लागू किया जाएगा। प्रकृति का नियम, गर्मी का मौसम, आप इसे बदल नहीं सकते हैं, कुछ भी। प्रकृति के नियम या ईश्वर के नियम, सूर्य पूर्वी तरफ से उठ रहा है और पश्चिमी तरफ सूर्यास्त हो रहा है। आप इसे बदल नहीं सकते हैं, कुछ भी। यह समझना होगा कि प्रकृति के नियम कैसे चल रहे हैं। यह कृष्ण चेतना है, प्रकृति के नियमों को समझना। और जैसे ही प्रकृति के नियमों की बात होती है, हमें स्वीकार करना चाहिए कि एक नियमों का निर्माता है। प्रकृति के नियम अपने आप विकसित नहीं हो सकते। पृष्ठभूमि पर कुछ अधिकार होना चाहिए। भगवद गीता इसलिए दसवे अध्याय में कहती हैं कि मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ([[Vanisource:BG 9.10 (1972)|BG 9.10]]): "मेरी दिशा के अंतर्गत, अधीक्षण, भौतिक नियम काम कर रहे हैं।"|Vanisource:680614 - Lecture BG 04.08 - Montreal|680614 - प्रवचन BG 04.08 - मॉन्ट्रियल}}
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Latest revision as of 17:33, 17 September 2020

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
प्रकृति के नियम की आप अवज्ञा नहीं कर सकते । यह आप पर लागू होगा ही । प्रकृति के नियम की तरह, सर्दी का मौसम । आप इसे बदल नहीं सकते । यह आप पर लागू किया जाएगा । प्रकृति का नियम, गर्मी का मौसम, आप इसे बदल नहीं सकते हैं, कुछ भी । प्रकृति के नियम या ईश्वर के नियम, सूर्य पूर्वी तरफ से उदय होता है और पश्चिमी तरफ अस्त होता है । आप इसे बदल नहीं सकते हैं, कुछ भी । यह आपको समझना होगा कि प्रकृति के नियम कैसे चल रहे हैं । यह कृष्ण भावनामृत है, प्रकृति के नियमों को समझना । और जैसे ही प्रकृति के नियमों की बात होती है, हमें स्वीकार करना चाहिए कि एक नियमों का निर्माता है । प्रकृति के नियम अपने आप विकसित नहीं हो सकते । पृष्ठभूमि पर कुछ सत्ता तो होनी ही चाहिए । भगवद गीता इसलिए दसवे अध्याय में कहती हैं कि मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् (भ.गी. ९.१०): "मेरी दिशा के अंतर्गत, अधीक्षण में, भौतिक नियम काम कर रहे हैं।
680614 - प्रवचन भ.गी. ४.८ - मॉन्ट्रियल