HI/710201b प्रवचन - श्रील प्रभुपाद इलाहाबाद में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"देवियों और सज्जनों, हम कृष्ण को कृपा-सिंधु, दया के सागर के रूप में जानते हैं: हे कृष्णा करुणा-सिन्धो। दीन-बन्धो, और वे सभी विनम्र आध्यात्मिक जीवों के मित्र हैं। दीन-बन्धो। दीन-यह शब्द इसलिए उपयोग किया गया है क्योंकि हम इस भौतिक अस्तित्व में हैं। हम बहुत अधिक आत्मसंतुष्ट हैं-स्वल्प जला मात्रेणा सपरी फोरा फोरयते। ठीक उसी तरह जैसे झील के कोने में एक छोटी सी मछली फड़फड़ाती है, वैसे ही हमें नहीं पता कि हमारी स्थिति क्या है। इस भौतिक संसार में हमारी स्थिति बहुत महत्वहीन है। इस भौतिक दुनिया का वर्णन श्रीमद-भागवतम, नहीं, भगवद-गीता: एकांशेना स्थितो जगत ([Vanisource: BG 10.42
भ.गी. १०.४२) में किया गया है। यह भौतिक संसार सम्पूर्ण सृष्टि का केवल एक महत्वहीन भाग है। असंख्य ब्रह्मांड हैं; हमें वह जानकारी मिलती है-यस्य प्रभा प्रभवतो जगद-अंड-कोटि (ब्र.सं. ५.४०]। जगद-अंड-कोटि। जगद-अंड का अर्थ है यह ब्रह्माण्ड। तो वहाँ... कोटि का अर्थ है असंख्य।"|Vanisource:710201 - Lecture at Pedagogical Institute - Allahabad]]