HI/710827 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद लंडन में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं: Difference between revisions

 
No edit summary
 
Line 4: Line 4:
{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/710827SB-LONDON_ND_01.mp3</mp3player>|"स्वर्ग या नरक के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शुद्ध भक्ति है। अन्याभिलाशिता-शून्यं (बी. आर.एस १.१.११), बिना किसी इच्छा के। वह भी इच्छा है कि, "मैं धाम वापस जा रहा हूं, भगवद धाम वापस जा रहा हूं।" लेकिन वह इच्छा बहुत उच्च योग्य इच्छा है। लेकिन एक शुद्ध भक्त वह भी इच्छा नहीं रखता है। अन्याभिलाशिता-शून्यं ([[Vanisource:CC Madhya 19.167|चै. च १९.१६७]])।
{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/710827SB-LONDON_ND_01.mp3</mp3player>|"स्वर्ग या नरक के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शुद्ध भक्ति है। अन्याभिलाशिता-शून्यं (बी. आर.एस १.१.११), बिना किसी इच्छा के। वह भी इच्छा है कि, "मैं धाम वापस जा रहा हूं, भगवद धाम वापस जा रहा हूं।" लेकिन वह इच्छा बहुत उच्च योग्य इच्छा है। लेकिन एक शुद्ध भक्त वह भी इच्छा नहीं रखता है। अन्याभिलाशिता-शून्यं ([[Vanisource:CC Madhya 19.167|चै. च १९.१६७]])।


उनकी इच्छा नहीं है . . . अब क्या . . . वे भगवद धाम वापस जाने की भी इच्छा नहीं रखते हैं, और वह इच्छा क्या जो स्वर्ग लोक के लिए उन्नत या पदोन्नत के लिए हो। वे बस इतना चाहते हैं, "कृष्ण की जहाँ इच्छा हो मैं वहां रहूँ। मैं बस उनकी सेवा में लगा रहूँ।" वही शुद्ध भक्त है। बस इतना ही।"|Vanisource:710827 - Lecture SB 01.02.06 - London|710827 - प्रवचन SB 01.02.06 - लंडन}}
उनकी इच्छा नहीं है . . . अब क्या . . . वे भगवद धाम वापस जाने की भी इच्छा नहीं रखते हैं, और वह इच्छा क्या जो स्वर्ग लोक के लिए उन्नत या पदोन्नत के लिए हो। वे बस इतना चाहते हैं, "कृष्ण की जहाँ इच्छा हो मैं वहां रहूँ। मैं बस उनकी सेवा में लगा रहूँ।" वही शुद्ध भक्त है। बस इतना ही।"|Vanisource:710827 - Lecture SB 01.02.06 - London|710827 - प्रवचन श्री. भा ०१.०२.०६ - लंडन}}

Latest revision as of 06:48, 26 January 2022

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"स्वर्ग या नरक के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह शुद्ध भक्ति है। अन्याभिलाशिता-शून्यं (बी. आर.एस १.१.११), बिना किसी इच्छा के। वह भी इच्छा है कि, "मैं धाम वापस जा रहा हूं, भगवद धाम वापस जा रहा हूं।" लेकिन वह इच्छा बहुत उच्च योग्य इच्छा है। लेकिन एक शुद्ध भक्त वह भी इच्छा नहीं रखता है। अन्याभिलाशिता-शून्यं (चै. च १९.१६७)।

उनकी इच्छा नहीं है . . . अब क्या . . . वे भगवद धाम वापस जाने की भी इच्छा नहीं रखते हैं, और वह इच्छा क्या जो स्वर्ग लोक के लिए उन्नत या पदोन्नत के लिए हो। वे बस इतना चाहते हैं, "कृष्ण की जहाँ इच्छा हो मैं वहां रहूँ। मैं बस उनकी सेवा में लगा रहूँ।" वही शुद्ध भक्त है। बस इतना ही।"

710827 - प्रवचन श्री. भा ०१.०२.०६ - लंडन