HI/760811 बातचीत - श्रील प्रभुपाद तेहरान में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

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HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"जैसे एक बच्चा कुछ करना चाहता है। पिता कहते हैं, 'ऐसा मत करो', मैंने कई बार कहा है। अनिच्छा से, 'ठीक है, करो'। मैंने १९२५ या '२६ के अपने व्यावहारिक अनुभव का उदाहरण दिया है जब मेरा बेटा दो साल का था। एक मेज पंखा था, 'मैं इसे छूना चाहूंगा'। और मैंने कहा, 'नहीं, मत छुओ'। यह बच्चा है। तो, लेकिन यह एक बच्चा है। फिर से उसने छूने की कोशिश की। तो एक दोस्त था, उसने कहा, 'बस गति धीमी करो और उसे छूने दो।' तो मैंने ऐसा किया, गति धीमी कर दी और उसने स्पर्श किया-तुंग! फिर वह स्पर्श नहीं करेगा? तो आप देखिये? यह मंजूरी दी गई, 'इसे स्पर्श करें', अनिच्छा से। अब उसे अनुभव मिलता है और मैं उससे पूछता हूं, 'फिर से स्पर्श करना है?' 'नहीं।' तो यह मंजूरी। हम सभी जो इस भौतिक दुनिया में आए हैं, यह ऐसा ही है। अनिच्छा से। इसलिए भगवान इन बदमाशों को सूचित करने के लिए फिर से अवतरित होते हैं कि 'अब आपने इतनी कोशिश की है। बेहतर है कि यह त्याग दें, मेरे धाम फिर से आ जाओ।' सर्व-धर्मान परित्यज्य (भ.गी. १८.६६)। मंजूरी दी गई थी, निश्चित रूप से, और उसे अनुभव है, बहुत कड़वा, लेकिन फिर भी वह नहीं... यह जिद्द है। कुत्ते की मनोवृत्ति।"

760811 - सम्भाषण बी - तेहरान