HI/BG 16.20

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि ।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥२०॥

शब्दार्थ

आसुरीम्—आसुरी; योनिम्—योनि को; आपन्ना:—प्राह्रश्वत हुए; मूढा:—मूर्ख; जन्मनि जन्मनि—जन्मजन्मान्तर में; माम्—मुझ को; अप्राह्रश्वय—पाये बिना; एव—निश्चय ही; कौन्तेय—हे कुन्तीपुत्र; तत:—तत्पश्चात्; यान्ति—जाते हैं; अधमाम्—अधम, निन्दित; गतिम्—गन्तव्य को।

अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! ऐसे व्यक्ति आसुरी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मुझ तक पहुँच नहीं पाते । वे धीरे-धीरे अत्यन्त अधम गति को प्राप्त होते हैं ।

तात्पर्य

यह विख्यात है कि ईश्र्वर अत्यन्त दयालु हैं, लेकिन यहाँ पर हम देखते हैं कि वे असुरों पर कभी भी दया नहीं करते । यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि आसुरी लोगों को जन्म जन्मान्तर तक उनके समान असुरों के गर्भ में रखा जाता है और ईश्र्वर की कृपा प्राप्त न होने से उनका अधःपतन होता रहता है, जिससे अन्त में उन्हें कुत्तों, बिल्लियों तथा सूकरों जैसा शरीर मिलता है । यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे असुर जीवन की किसी भी अवस्था में ईश्र्वर की कृपा का भाजन नहीं बन पाते । वेदों में भी कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति अधःपतन होने पर कूकर-सूकर बनते हैं । इस प्रसंग में यह तर्क किया जा सकता है कि यदि ईश्र्वर ऐसे असुरों पर कृपालु नहीं हैं तो उन्हें सर्व कृपालु क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि वेदान्तसूत्र से पता चलता है कि परमेश्र्वर किसी से घृणा नहीं करते । असुरों को निम्नतम (अधम) योनि में रखना उनकी कृपा की अन्य विशेषता है । कभी-कभी परमेश्र्वर असुरों का वध करते हैं, लेकिन यह वध भी उनके लिए कल्याणकारी होता है, क्योंकि वैदिक साहित्य से पता चलता है कि जिस किसी का वध परमेश्र्वर द्वारा होता है, उसको मुक्ति मिल जाती है । इतिहास में ऐसे असुरों के अनेक उदाहरण प्राप्त हैं – यथा रावण, कंस, हिरण्यकशिपु, जिन्हें मारने के लिए भगवान् ने विविध अवतार धारण किये । अतएव असुरों पर ईश्र्वर की कृपा तभी होती है, जब वे इतने भाग्यशाली होते हैं कि ईश्र्वर उनका वध करें ।