HI/BG 18.75

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 75

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शब्दार्थ

व्यास-प्रसादात्—व्यासदेव की कृपा से; श्रुतवान्—सुना है; एतत्—इस; गुह्यम्—गोपनीय; अहम्—मैंने; परम्—परम; योगम्—योग को; योग-ईश्वरात्—योग के स्वामी; कृष्णात्—कृष्ण से; साक्षात्—साक्षात्; कथयत:—कहते हुए; स्वयम्—स्वयं।

अनुवाद

निर्दिष्ट कर्तव्यों को कभी नहीं त्यागना चाहिए । यदि कोई मोहवश अपने नियत कर्मों का परित्याग कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है ।

तात्पर्य

जो कार्य भौतिक तुष्टि के लिए किया जाता है, उसे अवश्य ही त्याग दे, लेकिन जिन कार्यों से आध्यात्मिक उन्नति हो, यथा भगवान् के लिए भोजन बनाना, भगवान् को भोग अर्पित करना, फिर प्रसाद ग्रहण करना, उसकी संस्तुति की जाती है । कहा जाता है कि संन्यासी को अपने लिए भोजन नहीं बनाना चाहिए । लेकिन अपने लिए भोजन पकाना भले ही वर्जित हो, परमेश्र्वर के लिए भोजन पकाना वर्जित नहीं है । इसी प्रकार अपने शिष्य की कृष्णभावनामृत में प्रगति करने में सहायक बनने के लिए संन्यासी विवाह-यज्ञ सम्पन्न करा सकता है । यदि कोई ऐसे कार्यों का परित्याग कर देता है, तो यह समझना चाहिए कि वह तमोगुण के अधीन है ।