HI/BG 6.43

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥४३॥

शब्दार्थ

तत्र—वहाँ; तम्—उस; बुद्धि-संयोगम्—चेतना की जागृति को; लभते—प्राह्रश्वत होता है; पौर्व-देहिकम्—पूर्व देह से; यतते—प्रयास करता है; च—भी; तत:—तत्पश्चात्; भूय:—पुन:; संसिद्धौ—सिद्धि के लिए; कुरु-नन्दन—हे कुरुपुत्र।

अनुवाद

हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है |

तात्पर्य

राजा भरत, जिन्हें तीसरे जन्म में उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म मिला, पूर्व दिव्यचेतना की पुनःप्राप्ति के लिए उत्तम जन्म के उदाहरणस्वरूप हैं | भरत विश्र्व भर के सम्राट थे और तभी से यह लोक देवताओं के बीच भारतवर्ष के नाम से विख्यात है | पहले यह इलावृतवर्ष के नाम से ज्ञात था | भरत ने अल्पायु में ही आध्यात्मिक सिद्धि के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया था, किन्तु वे सफल नहीं हो सके | अगले जन्म में उन्हें उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेना पड़ा और वे जड़ भरत कहलाये क्योंकि वे एकान्त वास करते थे तथा किसी से बोलते न थे | बाद में राजा रहूगण ने इन्हें महानतम योगी के रूप में पाया | उनके जीवन से यह पता चलता है कि दिव्य प्रयास अथवा योगाभ्यास कभी व्यर्थ नहीं जाता | भगवत्कृपा से योगी को कृष्णभावनामृत में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के बारम्बार सुयोग प्राप्त होते रहते हैं |