HI/BG 9.21

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His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupāda


श्लोक 21

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शब्दार्थ

ते—वे; तम्—उसको; भुक्त्वा—भोग करके; स्वर्ग-लोकम्—स्वर्ग को; विशालम्—विस्तृत; क्षीणे—समाह्रश्वत हो जाने पर; पुण्ये—पुण्यकर्मों के फल; मत्र्य-लोकम्—मृत्युलोक में; विशन्ति—नीचे गिरते हैं; एवम्—इस प्रकार; त्रयी—तीनों वेदों के; धर्मम्—सिद्धान्तों के; अनुप्रपन्ना:—पालन करने वाले; गत-आगतम्—मृत्यु तथा जन्म को; काम-कामा:—इन्द्रियसुख चाहने वाले; लभन्ते—प्राह्रश्वत करते हैं।

अनुवाद

इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं | इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है |

तात्पर्य

जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घजीवन तथा विषयसुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं, तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता | पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है | जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण कृष्ण को नहीं समझता, वह जीवन के चरमलक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता | वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वीलोक को जाता-आता रहता है, मानो वह किसी चक्र पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है | सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है | अच्छा तो यह होगा कि सच्चिदानन्दमय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता |