HI/BG 9.4
श्लोक 4
- j
शब्दार्थ
मया—मेरे द्वारा; ततम्—व्याह्रश्वत है; इदम्—यह; सर्वम्—समस्त; जगत्—²श्य जगत्; अव्यक्त-मूॢतना—अव्यक्त रूप द्वारा; मत्-स्थानि—मुझमें; सर्व-भूतानि—समस्त जीव; न—नहीं; च—भी; अहम्—मैं; तेषु—उनमें; अवस्थित:—स्थित।
अनुवाद
यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याह्रश्वत है। समस्त जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।
तात्पर्य
भगवान् की अनुभूति स्थूल इन्द्रियों से नहीं हो पाती | कहा गया है कि –
अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः |
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ||
(भक्तिरसामृत सिन्धु १.२.२३४)
भगवान् श्रीकृष्ण के नाम, यश, लीलाओं आदि को भौतिक इन्द्रियों से नहीं समझा जा सकता | जो समुचित निर्देशन से भक्ति में लगा रहता है उसे ही भगवान् का साक्षात्कार हो पाता है | ब्रह्मसंहिता में (५.३८) कहा गया है – प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति – यदि किसी ने भगवान् के प्रति दिव्य प्रेमाभिरूचि उत्पन्न कर ली है, तो वह सदैव अपने भीतर तथा बाहर भगवान् गोविन्द को देख सकता है | इस प्रकार वे सामान्यजनों के लिए दृश्य नहीं हैं | यहाँ पर कहा गया है कि यद्यपि भगवान् सर्वव्यापी हैं और सर्वत्र उपस्थित रहते हैं, किन्तु वे भौतिक इन्द्रियों द्वारा अनुभवगम्य नहीं हैं | इसका संकेत अव्यक्तमुर्तिना शब्द द्वारा हुआ है | भले ही हम उन्हें न देख सकें, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि उन्हीं पर सब कुछ आश्रित है | जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् उनकी दो विभिन्न शक्तियों – पता या आध्यात्मिक शक्ति तथा अपरा या भौतिक शक्ति – का संयोग मात्र है | जिस प्रकार सूर्यप्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैला रहता है उसी प्रकार भगवान् की शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि में फैली है और सारी वस्तुएँ उसी शक्ति पर टिकी हैं |
फिर भी किसी को इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिए कि सर्वत्र फैले रहने के कारण भगवान् ने अपनी व्यक्तिगत सत्ता खो दी है | ऐसे तर्क का निराकरण करने के लिए भगवान् कहते हैं ”मैं सर्वत्र हूँ और प्रत्येक वस्तु मुझमें है तो भी मैं पृथक् हूँ |” उदाहरणार्थ, राजा किसी सरकार का अध्यक्ष होता है और सरकार उसकी स्जक्ति का प्राकट्य होती है, विभिन्न सरकारी विभाग राजा की शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते और प्रत्येक विभाग राजा की क्षमता पर निर्भर करता है | तो भी राजा से यह आशा नहीं की जाती कि वह प्रत्येक विभाग में स्वयं उपस्थित हो | यह एक मोटा सा उदाहरण दिया गया | इसी प्रकार हम जितने स्वरूप देखते हैं और जितनी भी वस्तुएँ इस लोक में तथा परलोक में विद्यमान हैं वे सब भगवान् की शक्ति पर आश्रित हैं | सृष्टि की उत्पत्ति भगवान् की विभिन्न शक्तियों के विस्तार से होती है और जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है – विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् – वे अपने साकार रूप के करण अपनी विभिन्न शक्तियों के विस्तार से सर्वत्र विद्यमान हैं |