HI/Prabhupada 0057 - हृदय का परिमार्जन: Difference between revisions

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रेवतीनन्दन: हम हमेशा हरे कृष्ण का जाप करने को प्रोत्साहित करते हैं, हैं ना ?  
रेवतीनन्दन: हम हमेशा हरे कृष्ण का जप करने को प्रोत्साहित करते हैं, हैं ना ?


प्रभुपाद: हाँ । केवल यही विधि है इस युग में । हरे कृष्ण जाप से, हमारी... ज्ञान का अागार शुद्ध हो जाएगा । और फिर वह, प्राप्त कर सकता है, वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है । हृदय के परिमार्जन के बिना इस आध्यात्मिक ज्ञान को समझना और प्राप्त करना बहुत मुश्किल है । यह सभी सुधारात्मक उपाय - ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ - वे केवल परिमार्जन कि विधि है । और भक्ति भी परिमार्जन कि एक विधि है, विधि भक्ति । लेकिन अर्च विग्रह की पूजा करने से, वह भी शुद्ध हो जाता है । तत् परत्वे....सर्वोपाधि... जैसे जैसे वह प्रबुद्ध या उन्नत होता है इस समझ में कि वह कृष्ण का शाश्वत नौकर है, वह शुद्ध हो जाता है । वह शुद्ध हो जाता है । सर्वोपाधि इसका मतलब है कि वह नहीं करता है ... सर्वोपाधि । वह अपने उपाधि को समाप्त करने की कोशिश करता है, कि "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ ।" तो इस तरह से, जब तुम पूरी तरह से जीवन की इस देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाते हो, तब निर्मलम् । वह निर्मल हो जाता है, पवित्र । और जब तक जीवन की यह अवधारणा है कि "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ," "मैं वह हूँ," वह अभी भी.....  
प्रभुपाद: हाँ । केवल यही विधि है इस युग में । हरे कृष्ण जप से, हमारी ... ज्ञान का अागार शुद्ध हो जाएगा । और फिर व्यक्ति, प्राप्त कर सकता है, वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है । हृदय के सफ़ाई के बिना इस आध्यात्मिक ज्ञान को समझना और प्राप्त करना बहुत मुश्किल है । यह सभी सुधारात्मक उपाय - ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ - वे केवल सफ़ाई कि विधि है । और भक्ति भी सफ़ाई कि एक विधि है, विधि भक्ति । लेकिन अर्च विग्रह की पूजा करने से, वह भी शुद्ध हो जाता है । तत् परत्वे....सर्वोपाधि... जैसे जैसे वह प्रबुद्ध या उन्नत होता है इस समझ में कि वह कृष्ण का शाश्वत नौकर है, वह शुद्ध हो जाता है । वह शुद्ध हो जाता है । सर्वोपाधि इसका मतलब है कि वह नहीं करता है ... सर्वोपाधि । वह अपने उपाधि को समाप्त करने की कोशिश करता है, कि "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ ।" तो इस तरह से, जब तुम पूरी तरह से जीवन की इस देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाते हो, तब निर्मलम् । वह निर्मल हो जाता है, पवित्र । और जब तक जीवन की यह अवधारणा है कि "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ," "मैं वह हूँ," वह अभी भी.....


स भक्त: प्रकृत: स्मृत: ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्री भा ११।२।४७ ]]) (एक तरफ :) ठीक से बैठो, ऐसे नहीं । स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । अर्चायाम् एव हरये ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्री भा ११।२।४७ ]])...इस प्रक्रिया में भी, जब वे अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हैं, अर्चायां हरये यत-पूजां श्रद्धायेहते ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्री भा ११।२।४७ ]]), बहुत भक्ति से करना, लेकिन न तद भक्तेषु चान्येषु ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्री भा ११।२।४७ ]]), लेकिन उसे अन्य लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है या उसे पता नहीं है कि एक भक्त का स्थान क्या है, तब स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । "वह भौतिक भक्त कहलाता है, भौतिक भक्त ।"  
स भक्त: प्रकृत: स्मृत: ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्रीमद भागवतम ११.२.४७ ]]) (एक तरफ:) ठीक से बैठो, ऐसे नहीं । स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । अर्चायाम् एव हरये ([[Vanisource:SB 11.2.47|श्रीमद भागवतम ११.२.४७ ]])..... इस प्रक्रिया में भी, जब वे अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हैं, अर्चायां हरये यत-पूजां श्रद्धायेहते (श्रीमद भागवतम ११..४७), बहुत भक्ति से करना, लेकिन न तद भक्तेषु चान्येषु([[Vanisource:SB 11.2.47|श्रीमद भागवतम ११.२.४७ ]]), लेकिन उसे अन्य लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है या उसे पता नहीं है कि एक भक्त का स्थान क्या है, तो फिर - स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । "वह भौतिक भक्त कहलाता है, भौतिक भक्त ।"


इसलिए हमैं भौतिक भक्ति के स्तर से खुद को ऊपर उठाना होगा दूसरे स्तर पर जहॉ हम समझ सकते हैं कि एक भक्त क्या है, एक अभक्त क्या है, भगवान क्या हैं, नास्तिक क्या है । ये विभेदन तो हैं ।  
इसलिए हमैं भौतिक भक्ति के स्तर से खुद को ऊपर उठाना होगा दूसरे स्तर पर जहॉ हम समझ सकते हैं कि एक भक्त क्या है, एक अभक्त क्या है, भगवान क्या हैं, नास्तिक क्या है । ये विभेदन तो हैं ।


और परमहंस अवस्था में इस तरह का कोई भेदभाव नहीं है । वे हर किसी को भगवान की सेवा में लगा हुअा देखते हैं । वे किसी से ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे कुछ भी नहीं देखाते हैं, किसी को भी । लेकिन यह एक और स्तर है । हमें नकल नहीं करनी चाहिए, नकल करने की कोशिश, लेकिन हम समझ सकते हैं कि परमहंस सर्वोच्च स्तर है पूर्णता का । एक उपदेशक के रूप में हमें बताना पडता है... जैसे मैंने इस लड़के को बताया कि, "तुम इस तरह बैठो ।" लेकिन एक परमहंस नहीं कहेंगे । एक परमहंस, बल्कि वे देखते हैं: "वह ठीक है ।" वह देखते हैं । लेकिन हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । क्योंकि हम उपदेशक हैं, हम शिक्षक हैं, हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । हमें सही स्रोत, सही पथ बताना होगा ।  
और परमहंस अवस्था में इस तरह का कोई भेदभाव नहीं है । वे हर किसी को भगवान की सेवा में लगा हुअा देखते हैं । वे किसी से ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे कुछ भी नहीं देखाते हैं, किसी को भी । लेकिन यह एक और स्तर है । हमें नकल नहीं करनी चाहिए, नकल करने की कोशिश, लेकिन हम समझ सकते हैं कि परमहंस सर्वोच्च स्तर है पूर्णता का । एक उपदेशक के रूप में हमें बताना पडता है ... जैसे मैंने इस लड़के को बताया कि, "तुम इस तरह बैठो ।" लेकिन एक परमहंस नहीं कहेंगे । एक परमहंस, बल्कि वे देखते हैं: "वह ठीक है ।" वह देखते हैं । लेकिन हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । क्योंकि हम उपदेशक हैं, हम शिक्षक हैं, हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । हमें सही स्रोत, सही पथ बताना होगा ।


रेवतीनन्दन: आप परमहंस कि स्तर से उपर होंगे, प्रभुपाद ।  
रेवतीनन्दन: आप परमहंस कि स्तर से उपर होंगे, प्रभुपाद ।


प्रभुपाद: मैं तुम से भी नीचे स्तर पर हूँ । मैं तुम से भी नीचे स्तर पर हूँ ।  
प्रभुपाद: मैं तुम्हारे से भी नीचे स्तर पर हूँ । मैं तुम्हारे से भी नीचे स्तर पर हूँ ।


रेवतीनन्दन: आप बहुत सुंदर हैं । आप परमहंस हैं, लेकिन फिर भी अाप हमारे को प्रचार कर रहे हैं ।  
रेवतीनन्दन: आप बहुत सुंदर हैं । आप परमहंस हैं, लेकिन फिर भी अाप हमें प्रचार कर रहे हैं ।


प्रभुपाद: नहीं, मैं तुमसे नीचे स्तर पर हूँ । मैं सब प्राणियों में सबसे अधम हूँ । मैं केवल अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश पर अमल करने की कोशिश कर रहा हूँ । बस । यही हर किसी का कर्तव्य होना चाहिए । सबसे अच्छा प्रयास करो । उच्च आदेश पर अमल करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करो । यही सबसे सुरक्षित तरीका है प्रगती का । हम सबसे नीचले स्तर पर हो सकते हैं लेकिन अगर वह अपने कर्तव्य का निर्वाह करने की कोशिश करता है जो उसे सौंपा गया है, तो वह एकदम सही है । वह सबसे निचले स्तर पर हो सकता है, लेकिन क्योंकि वह उसे सौंपे गए कर्तव्य पर अमल करने की कोशिश कर रहा है, तब वह बिल्कुल सही है । यही विचार है ।
प्रभुपाद: नहीं, मैं तुम्हारे से नीचे स्तर पर हूँ । मैं सब प्राणियों में सबसे अधम हूँ । मैं केवल अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश पर अमल करने की कोशिश कर रहा हूँ । बस । यही हर किसी का कर्तव्य होना चाहिए । सबसे अच्छा प्रयास करो । उच्च आदेश पर अमल करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करो । यही सबसे सुरक्षित तरीका है प्रगती का । हम सबसे नीचले स्तर पर हो सकते हैं लेकिन अगर वह अपने कर्तव्य का निर्वाह करने की कोशिश करता है जो उसे सौंपा गया है, तो वह एकदम सही है । वह सबसे निचले स्तर पर हो सकता है, लेकिन क्योंकि वह उसे सौंपे गए कर्तव्य पर अमल करने की कोशिश कर रहा है, तब वह बिल्कुल सही है । यही विचार है ।  
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Latest revision as of 12:36, 5 October 2018



Lecture on SB 6.1.34-39 -- Surat, December 19, 1970

रेवतीनन्दन: हम हमेशा हरे कृष्ण का जप करने को प्रोत्साहित करते हैं, हैं ना ?

प्रभुपाद: हाँ । केवल यही विधि है इस युग में । हरे कृष्ण जप से, हमारी ... ज्ञान का अागार शुद्ध हो जाएगा । और फिर व्यक्ति, प्राप्त कर सकता है, वह आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है । हृदय के सफ़ाई के बिना इस आध्यात्मिक ज्ञान को समझना और प्राप्त करना बहुत मुश्किल है । यह सभी सुधारात्मक उपाय - ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ - वे केवल सफ़ाई कि विधि है । और भक्ति भी सफ़ाई कि एक विधि है, विधि भक्ति । लेकिन अर्च विग्रह की पूजा करने से, वह भी शुद्ध हो जाता है । तत् परत्वे....सर्वोपाधि... जैसे जैसे वह प्रबुद्ध या उन्नत होता है इस समझ में कि वह कृष्ण का शाश्वत नौकर है, वह शुद्ध हो जाता है । वह शुद्ध हो जाता है । सर्वोपाधि इसका मतलब है कि वह नहीं करता है ... सर्वोपाधि । वह अपने उपाधि को समाप्त करने की कोशिश करता है, कि "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं भारतीय हूँ," "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ ।" तो इस तरह से, जब तुम पूरी तरह से जीवन की इस देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाते हो, तब निर्मलम् । वह निर्मल हो जाता है, पवित्र । और जब तक जीवन की यह अवधारणा है कि "मैं यह हूँ," "मैं वह हूँ," "मैं वह हूँ," वह अभी भी.....

स भक्त: प्रकृत: स्मृत: (श्रीमद भागवतम ११.२.४७ ) (एक तरफ:) ठीक से बैठो, ऐसे नहीं । स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । अर्चायाम् एव हरये (श्रीमद भागवतम ११.२.४७ )..... इस प्रक्रिया में भी, जब वे अर्च विग्रह की पूजा में लगे हुए हैं, अर्चायां हरये यत-पूजां श्रद्धायेहते (श्रीमद भागवतम ११.२.४७), बहुत भक्ति से करना, लेकिन न तद भक्तेषु चान्येषु(श्रीमद भागवतम ११.२.४७ ), लेकिन उसे अन्य लोगों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है या उसे पता नहीं है कि एक भक्त का स्थान क्या है, तो फिर - स भक्त: प्रकृत: स्मृत: । "वह भौतिक भक्त कहलाता है, भौतिक भक्त ।"

इसलिए हमैं भौतिक भक्ति के स्तर से खुद को ऊपर उठाना होगा दूसरे स्तर पर जहॉ हम समझ सकते हैं कि एक भक्त क्या है, एक अभक्त क्या है, भगवान क्या हैं, नास्तिक क्या है । ये विभेदन तो हैं ।

और परमहंस अवस्था में इस तरह का कोई भेदभाव नहीं है । वे हर किसी को भगवान की सेवा में लगा हुअा देखते हैं । वे किसी से ईर्ष्या नहीं करते हैं, वे कुछ भी नहीं देखाते हैं, किसी को भी । लेकिन यह एक और स्तर है । हमें नकल नहीं करनी चाहिए, नकल करने की कोशिश, लेकिन हम समझ सकते हैं कि परमहंस सर्वोच्च स्तर है पूर्णता का । एक उपदेशक के रूप में हमें बताना पडता है ... जैसे मैंने इस लड़के को बताया कि, "तुम इस तरह बैठो ।" लेकिन एक परमहंस नहीं कहेंगे । एक परमहंस, बल्कि वे देखते हैं: "वह ठीक है ।" वह देखते हैं । लेकिन हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । क्योंकि हम उपदेशक हैं, हम शिक्षक हैं, हमें परमहंस की नकल नहीं करनी चाहिए । हमें सही स्रोत, सही पथ बताना होगा ।

रेवतीनन्दन: आप परमहंस कि स्तर से उपर होंगे, प्रभुपाद ।

प्रभुपाद: मैं तुम्हारे से भी नीचे स्तर पर हूँ । मैं तुम्हारे से भी नीचे स्तर पर हूँ ।

रेवतीनन्दन: आप बहुत सुंदर हैं । आप परमहंस हैं, लेकिन फिर भी अाप हमें प्रचार कर रहे हैं ।

प्रभुपाद: नहीं, मैं तुम्हारे से नीचे स्तर पर हूँ । मैं सब प्राणियों में सबसे अधम हूँ । मैं केवल अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश पर अमल करने की कोशिश कर रहा हूँ । बस । यही हर किसी का कर्तव्य होना चाहिए । सबसे अच्छा प्रयास करो । उच्च आदेश पर अमल करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करो । यही सबसे सुरक्षित तरीका है प्रगती का । हम सबसे नीचले स्तर पर हो सकते हैं लेकिन अगर वह अपने कर्तव्य का निर्वाह करने की कोशिश करता है जो उसे सौंपा गया है, तो वह एकदम सही है । वह सबसे निचले स्तर पर हो सकता है, लेकिन क्योंकि वह उसे सौंपे गए कर्तव्य पर अमल करने की कोशिश कर रहा है, तब वह बिल्कुल सही है । यही विचार है ।