HI/Prabhupada 0151 - हमें अाचार्यों से सीखना होगा

Revision as of 18:13, 17 September 2020 by Vanibot (talk | contribs) (Vanibot #0019: LinkReviser - Revise links, localize and redirect them to the de facto address)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Lecture on SB 7.6.1 -- Madras, January 2, 1976

तो हम अलग अलग योजना बना रहे हैं लेकिन यह सफल नहीं होगें । मैंने कल रात को इतना बताया था, कि हम स्वतंत्र सोच रहे हैं और हम स्वतंत्र रूप से बहुत सी बातों की योजना बना रहे हैं खुश होने के लिए। यह संभव नहीं है। यह संभव नहीं है । यह माया के मोह का खेल है। दैवि हि एषा गुण मयी मम माया दुरत्यया (भ गी ७.१४) । तुम पार नहीं कर सकते। तो अंतिम समाधान क्या है? माम् एव प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते (भ गी ७.१४) | अगर हम कृष्ण के प्रति समर्पित हैं, तो हम अपने मूल स्थान को पुनर्जीवित कर सकते हैं । यही ... कृष्ण भावनामृत का मतलब है इतनी सारी चीजें रखने के बजाय चेतना में ... वे सब प्रदूषित चेतना है। असली ... हमें चेतना मिलI है, यह एक तथ्य है, लेकिन हमारी चेतना प्रदूषित है. इसलिए हमें चेतना को शुद्ध करना होगा। चेतना को शुद्ध करने का मतलब है भक्ति । भक्ति की परिभाषा नारद पंचरात्र में दी गई है ... रूप गोस्वामी... रूप गोस्वामी कहते हैं,

अन्याभिलाशिता-शून्यम्
ज्ञान-कर्मादि अनावृतम्
आनुकुल्येन कृष्णानु-शीलनम्
भक्तिर उत्तमा
(भक्तिरसामृतसिन्धु १.१.११)

यही प्रथम श्रेणी की भक्ति है कि कोई अन्य उद्देश्य नहीं है अन्याभिला ... क्योंकि यहाँ भौतिक दुनिया में, भौतिक प्रकृति के नियंत्रण में प्रकृते: क्रियमाणानि गुनै: कर्माणी सर्वश: अहंकार-विमुढात्मा कर्ता....(भ गी ३.२७) | हम प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में हैं, भौतिक प्रकृति । लेकिन क्योंकि हम मूर्ख हैं, हम अपनी स्थिति को भूल गए हैं, तो अहंकार, झूठा अहंकार । यह झूठा अहंकार है। "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमेरिकी हूँ," "मैं क्षत्रीय हूँ " "मैं ब्राह्मण हूँ | " यह झूठा अहंकार है। इसलिए नारद पंचरात्र कहता है सर्वोपाधी-विनिर्मुक्तम (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१७०) | तो इन सभी पदों से मुक्त होना है, अदूषित, "मैं भारतीय हूँ," "मैं अमेरिकी हूँ," मैं यह हूँ," " मैं वह हूँ ... सर्वोपाधी-विनिर्मुक्तम तत् परत्वेन निर्मलम् । जब वह शुद्ध होता है, निर्मलम्, किसी भी पद पर नियुक्ति के बिना, कि "मैं कृष्ण का अभिन्न अंग हूँ।" अहम् ब्रह्मास्मि ।

यह है अहम् ब्रह्मास्मि । कृष्ण पर-ब्रह्म हैं। वह श्रीमद-भगवद गीता में वर्णित हैं। अर्जुन ... परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम् परमम् भवान पुरुषम शाश्वतम् अाद्यम् (भ गी १०.१२) | अर्जुन नें पेहचाना और उन्होंने कहा, "आपको सभी अधिकारियों द्वारा मान्यता प्राप्त है।" प्रहलाद महाराज अधिकारियों में से एक है । मैंने अधिकारियों का वर्णन किया है। ब्रह्मा अधिकारी हैं , भगवान शिव अधिकारी हैं, और कपिल अधिकारी हैं। कुमार, चार कुमार, वे अधिकारी हैं, और मनु अधिकारी हैं। इसी तरह, प्रहलाद महाराज अधिकािरी हैं। जनक महाराज अधिकारी हैं। बारह अधिकारि। तो अर्जुन नें पुष्टि की है कि " आप बात कर रहे हो , खुद, कि आप परम भगवान हैं।" मत: परतरम् नान्यत् (भ गी ७।७)| "और भगवद गीता की चर्चा से, मैं भी आप को पर-ब्रह्म स्वीकार करता हूँ । अौर यह ही नहीं, सभी अधिकारी, वे भी आपको स्वीकार करते हैं। " हाल ही में, हमारे समय में, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, सभी अाचार्य , वे भी कृष्ण को स्वीकार करते हैं । यहां तक कि शंकराचार्य, वह भी कृष्ण को स्वीकार करते हैं । स भगवान स्वयम् कृष्ण: तो सभी अाचार्यों द्वारा कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के रूप स्वीकारे जाते है ।

इसलिए हमें अाचार्यों से सीखना होगा, न की किसी भी आम आदमी से या किसी भी ख़ुद के बने हुए आचार्य से। नहीं । यह नहीं चलेगा । जैसे की हम... कभी कभी अदालत में हम अन्य अदालत से कुछ फैसले देते हैं और यह बहुत गंभीरता से लिए जाते हैं क्योंकि यह अधिकृत हैं । हम फैसले का निर्माण नहीं कर सकते। इसी तरह, अाचार्योपासनम्, भगवद गीता में यह सिफारिश की गई है। हमें अाचार्य के पास जाना होगा । अाचार्यवान् पुरुषो वेद: "जिसने परम्परा उत्तराधिकार में आचार्य को स्वीकार किया है, वह जानता है। " तो सभी अाचार्य, वे कृष्ण, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का स्वीकार करते हैं। नारद, वह स्वीकार करते हैं, व्यासदेव वह स्वीकार करते हैं, और अर्जुन भी स्वीकार करते हैं, जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से कृष्ण की बात सुनी है, भगवद गीता । और ब्रह्माजी । कल किसी ने सवाल उठाया कि "द्वापर-युग से पहले श्री कृष्ण का नाम था या नहीं?" नहीं, बिलकुल था । शास्त्र में कृष्ण हैं । वेदों में, अथर्ववेद और दूसरों में, कृष्ण नाम है। और ब्रह्मा संहिता में - भगवान ब्रह्मा, उन्होंने ब्रह्मा संहिता लिखा है - यह स्पष्ट रूप से वहाँ समझाया है, ईश्वर: परम: कृष्ण: सच-चिद-अानन्द विग्रह: (ब्रह्मसंहिता ५.१), अनादिर् आदि: । अनादिर् अादिर गोविन्द: सर्व-कारण-कारणम् (ब्रह्मसंहिता ५.१) । और कृष्ण यह भी कहते हैं, मत्त: परतरम् नान्यत् किन्चिद अस्ति धनन्जय (भ गी ७.७) | अहम् सर्वस्य प्रभवो (भ गी १०.८) । सर्वस्य का मतलब है सभी देवता, सभी जीव, सब कुछ शामिल है। और वेदांत कहता है, जन्मादि अस्य यत: (श्रीमद भागवतम १.१.१) | तो कृष्ण पूर्ण श्रीभगवान हैं, ईश्वर: परमम, ब्रह्माजी से | वे वैदिक ज्ञान के वितरक है, और कृष्ण कहते भी हैं, वेदैश च सर्वैर् अहम् एव वेद्यम् (भ गी १५।१५) । यही अंतिम लक्ष्य है।