HI/Prabhupada 0208 - उस व्यक्ति की शरण लेनी चाहिए जो कृष्ण का भक्त है: Difference between revisions

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एक वैशनव किसी भी पापी गतिविधि में भाग नहीं लता है , और उसने अतीत में जो भी किया था, वह भी समाप्त हो जाता है। यह श्री कृष्ण ने कहा है । या दूसरे शब्दों में, अगर तुम श्रद्धापूर्वक भगवान की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तो निश्चित रूप से तुम पापी गतिविधियों के सभी प्रतिक्रियाअों से मुक्त हो जाते हो ।
एक वैष्णव किसी भी पापी गतिविधि में भाग नहीं लेता है, और उसने अतीत में जो भी किया था, वह भी समाप्त हो जाता है। यह श्री कृष्ण ने कहा है । या दूसरे शब्दों में, अगर तुम श्रद्धापूर्वक भगवान की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तो निश्चित रूप से तुम पापी गतिविधियों के सभी प्रतिक्रियाअों से मुक्त हो जाते हो ।  


तो यह कैसे संभव है? यथा कृष्णार्पित-प्रान: । प्राण: । प्राणेर अर्थेर धिया वाचा । प्राण, प्राण का अर्थ है जीवन । कृष्ण की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित किया है जिसने, ऐसा व्यक्ति । कैसे कृष्ण की सेवा के लिए इस जीवन में समर्पण संभव बनाया जा सकता है? वह भी यहाँ कहा गया है: तत-पुरुष-निशेवया । तुम्हे उस व्यक्ति की शरण लेनी चाहिए जो कृष्ण का भक्त है और तुम्हे सेवा करनी चाहिए । इसका मतलब है कि तुम्हे एक भक्त को स्वीकार करना होगा, एक सच्चे भक्त, एक शुद्ध भक्त को, अपने मार्गदर्शक के रूप में । यही हमारी प्रक्रिया है । रूपा गोस्वामी, भक्ति-रसाम्रत-सिंधु में कहते हैं "पहली प्रक्रिया है, पहला कदम है, अादौ गुरुवाश्रयम गुरु स्वीकार करना ।" गुरु स्वीकारना, गुरु का मतलब है कृष्ण का प्रतिनिधि । जो कृष्ण का प्रतिनिधि नहीं है वह गुरु नहीं बन सकता है । गुरू का मतलब नहीं है कि कोई भी बकवास गुरु बन सकता है । नहीं । केवल तत-पुरुष । तत-पुरुष का मतलब है जिस व्यक्ति नें देवत्व के परम व्यक्तित्व को स्वीकार किया है अपना सब कुछ के रूप में । तत-पुरुष-निशेवया । यही वैशनव है, शुद्ध भक्त । इसलिए यह बहुत मुश्किल नहीं है । कृष्ण की कृपा से शुद्ध भक्त हैं, तो हमें उनकी शरण लेनी चाहिए । अादौ गुरुवाश्रयम । फिर सद-धर्म-पृच्छात: एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करने के बाद, हमें जिज्ञासु होना चाहिए कृष्ण का विज्ञान क्या है यह जानने के लिए । सद-धर्म-पृच्छात साधु-मार्ग-अनुगमनम । और इस कृष्ण चेतना का मतलब है हमें भक्तों के नक्शेकदम पर चलना होगा, साधु-मार्ग-अनुगमनम ।
तो यह कैसे संभव है? यथा कृष्णार्पित-प्राण: । प्राण: । प्राणेर अर्थेर धिया वाचा । प्राण, प्राण का अर्थ है जीवन । कृष्ण की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित किया है जिसने, ऐसा व्यक्ति । कैसे कृष्ण की सेवा के लिए इस जीवन में समर्पण संभव बनाया जा सकता है? वह भी यहाँ कहा गया है: तत-पुरुष-निशेवया । तुम्हे उस व्यक्ति की शरण लेनी चाहिए जो कृष्ण का भक्त है और तुम्हे सेवा करनी चाहिए । इसका मतलब है कि तुम्हे एक भक्त को स्वीकार करना होगा, एक सच्चे भक्त, एक शुद्ध भक्त को, अपने मार्गदर्शक के रूप में ।


तो वे साधु कौन हैं? यह भी शास्त्र में उल्लेख किया है कि, हमने पहले से ही चर्चा की है
यही हमारी प्रक्रिया है । रूप गोस्वामी, भक्ति-रसामृत-सिंधु में कहते हैं, "पहली प्रक्रिया है, पहला कदम है, अादौ गुर्वाश्रयम, गुरु स्वीकार करना ।" गुरु स्वीकारना,  गुरु का मतलब है  कृष्ण का प्रतिनिधि । जो कृष्ण का प्रतिनिधि नहीं है, वह गुरु नहीं बन सकता है । गुरू का मतलब नहीं है कि कोई भी बकवास गुरु बन सकता है । नहीं ।  केवल तत-पुरुष । तत-पुरुष का मतलब है जिस व्यक्ति नें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवनको अपने सब कुछ के रूप में स्वीकार किया है । तत-पुरुष-निशेवया । 


:स्वयमभूर् नारद: शम्भु:
यही वैष्णव है, शुद्ध भक्त । इसलिए यह बहुत मुश्किल नहीं है । कृष्ण की कृपा से शुद्ध भक्त हैं, तो हमें उनकी शरण लेनी चाहिए ।  अादौ गुर्वाश्रयम । फिर सद-धर्म-पृच्छात: एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करने के बाद, हमें जिज्ञासु होना चाहिए कृष्ण का विज्ञान क्या है यह जानने के लिए । सद-धर्म-पृच्छात साधु-मार्ग-अनुगमनम । और इस कृष्ण भावनामृत का मतलब है हमें भक्तों के नक्शेकदम पर चलना होगा, साधु-मार्ग-अनुगमनम ।
:कुमार: कपिलो मनु:
:प्रहलादो जनको भीश्मो
:बलिर वैयासकिर वयम
:([[Vanisource:SB 6.3.20|श्रीभ ६।३।२०]])


दो ..., बारह हस्तियों का विशेष रूप से उल्लेख है, वे महाजन हैं, वे अधिकृत है, सदाशयी गुरु, और तुम्हे उनके मार्ग का अनुसरण करना होगा । यह मुश्किल नहीं है । तो स्वयमभू का अर्थ है भगवान ब्रह्मा । स्वयमभूर् नारद: शम्भु: । शम्भु: का अर्थ है भगवान शिव । इनमें से प्रत्येक ... इन बारह महाजन में से, चार बहुत महत्वपूर्ण हैं । यही हैं स्वयमभू, मतलब ब्रह्मा, और उसके बाद फिर शंम्भु:, भगवान शिव, और कुमार: । और एक दूसरा संप्रदाय है, श्री संप्रदाय, लक्षमिजी से । इसलिए हमें परम्परा उत्तराधिकार से इन चार सम्प्रदायों में से ही सख्ती से एक आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार करना होगा तो फिर हमें फायदा होंगा । अगर हम एक तथाकथित गुरु स्वीकार करते हैं, तो यह संभव नहीं होगा । हमें परम्परा उत्तराधिकार में से ही गुरु को स्वीकार करना होगा । इसलिए यह यहाँ सिफारिश की गई है, तत-पुरुष-निशेवया: हमें श्रद्धापूर्वक और हमेशा ईमानदारी से उनकी सेवा करनी चाहिए । तब हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा । अगर तुम यह कार्य अपनाते हो, कृष्ण के लिए जीवन समर्पित करना और हमेशा श्री कृष्ण की सेवा में लगे रहना तत-पुरुष के निर्देशन में - जिसका कोई अौर काम नहीं है कृष्ण चेतना प्रचार करने के अलावा -तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । हम सभी पापी प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाते हैं , और शुद्ध हुए बिना क्योंकि कृष्ण, या भगवान, शुद्ध हैं । अर्जुन ने कहा, परम ब्रह्मा परम ब्रह्मा पवित्रम परमम भवान: "मेरे भगवान कृष्ण, आप परम शुद्ध हैं ।" तो जब तक हम शुद्ध नहीं हैं हम कृष्ण के समीप नहीं जा सकते हैं । यही शास्त्र में बयान है । आग बने बिना, तुम आग में प्रवेश नहीं कर सकते हो । इसी तरह, पूरी तरह से शुद्ध हुए बिना, तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो । यह सभी धार्मिक प्रणालीयों द्वारा स्वीकार किया जाता है । ईसाई प्रणाली भी इसी तरह है, शुद्ध हए बिना तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो ।
तो वे साधु कौन हैं? यह भी शास्त्र में उल्लेख किया है कि, हमने पहले से ही चर्चा की है ।
 
:स्वयमभूर् नारद: शम्भु:
:कुमार: कपिलो मनु:
:प्रहलादो जनको भीष्मो
:बलिर वैयासकिर वयम
:([[Vanisource:SB 6.3.20-21|श्रीमद भागवतम ६.३.२०]])
 
दो ..., बारह हस्तियों का विशेष रूप से उल्लेख है, वे महाजन हैं, वे अधिकृत है, प्रामाणिक गुरु, और तुम्हे उनके मार्ग का अनुसरण करना होगा । यह मुश्किल नहीं है । तो स्वयमभू का अर्थ है ब्रह्माजी । स्वयमभूर् नारद: शम्भु: । शम्भु: का अर्थ है शिवजी । इनमें से प्रत्येक ... इन बारह महाजन में से, चार बहुत महत्वपूर्ण हैं । यही हैं स्वयमभू, मतलब ब्रह्मा, और उसके बाद फिर शंम्भु:, शिवजी, और कुमार: । और एक दूसरा संप्रदाय है, श्री संप्रदाय, लक्ष्मीजी से । इसलिए हमें परम्परा उत्तराधिकार से इन चार सम्प्रदायों में से ही सख्ती से एक आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार करना होगा | तो फिर हमें फायदा होंगा ।  
 
अगर हम एक तथाकथित गुरु स्वीकार करते हैं, तो यह संभव नहीं होगा । हमें परम्परा उत्तराधिकार में से ही गुरु को स्वीकार करना होगा । इसलिए यह यहाँ सिफारिश की गई है, तत-पुरुष-निशेवया: हमें श्रद्धापूर्वक और हमेशा ईमानदारी से उनकी सेवा करनी चाहिए । तब हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा । अगर तुम यह कार्य अपनाते हो, कृष्ण के लिए जीवन समर्पित करना और हमेशा श्री कृष्ण की सेवा में लगे रहना तत-पुरुष के निर्देशन में - जिसका कोई अौर काम नहीं है कृष्ण भावनामृत का प्रचार करने के अलावा - तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । हम सभी पापी प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाते हैं, और शुद्ध हुए बिना... क्योंकि कृष्ण, या भगवान, शुद्ध हैं ।  
 
अर्जुन ने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान: "मेरे भगवान कृष्ण, आप परम शुद्ध हैं ।" तो जब तक हम शुद्ध नहीं हैं हम कृष्ण के समीप नहीं जा सकते हैं । यही शास्त्र का विधान है । आग बने बिना, तुम आग में प्रवेश नहीं कर सकते हो । इसी तरह, पूरी तरह से शुद्ध हुए बिना, तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो । यह सभी धार्मिक प्रणालीयों द्वारा स्वीकार किया जाता है । ईसाई प्रणाली भी इसी तरह है, शुद्ध हए बिना तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 6.1.16 -- Denver, June 29, 1975

एक वैष्णव किसी भी पापी गतिविधि में भाग नहीं लेता है, और उसने अतीत में जो भी किया था, वह भी समाप्त हो जाता है। यह श्री कृष्ण ने कहा है । या दूसरे शब्दों में, अगर तुम श्रद्धापूर्वक भगवान की सेवा में अपने आप को संलग्न करते हो, तो निश्चित रूप से तुम पापी गतिविधियों के सभी प्रतिक्रियाअों से मुक्त हो जाते हो ।

तो यह कैसे संभव है? यथा कृष्णार्पित-प्राण: । प्राण: । प्राणेर अर्थेर धिया वाचा । प्राण, प्राण का अर्थ है जीवन । कृष्ण की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित किया है जिसने, ऐसा व्यक्ति । कैसे कृष्ण की सेवा के लिए इस जीवन में समर्पण संभव बनाया जा सकता है? वह भी यहाँ कहा गया है: तत-पुरुष-निशेवया । तुम्हे उस व्यक्ति की शरण लेनी चाहिए जो कृष्ण का भक्त है और तुम्हे सेवा करनी चाहिए । इसका मतलब है कि तुम्हे एक भक्त को स्वीकार करना होगा, एक सच्चे भक्त, एक शुद्ध भक्त को, अपने मार्गदर्शक के रूप में ।

यही हमारी प्रक्रिया है । रूप गोस्वामी, भक्ति-रसामृत-सिंधु में कहते हैं, "पहली प्रक्रिया है, पहला कदम है, अादौ गुर्वाश्रयम, गुरु स्वीकार करना ।" गुरु स्वीकारना, गुरु का मतलब है कृष्ण का प्रतिनिधि । जो कृष्ण का प्रतिनिधि नहीं है, वह गुरु नहीं बन सकता है । गुरू का मतलब नहीं है कि कोई भी बकवास गुरु बन सकता है । नहीं । केवल तत-पुरुष । तत-पुरुष का मतलब है जिस व्यक्ति नें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवनको अपने सब कुछ के रूप में स्वीकार किया है । तत-पुरुष-निशेवया ।

यही वैष्णव है, शुद्ध भक्त । इसलिए यह बहुत मुश्किल नहीं है । कृष्ण की कृपा से शुद्ध भक्त हैं, तो हमें उनकी शरण लेनी चाहिए । अादौ गुर्वाश्रयम । फिर सद-धर्म-पृच्छात: एक प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करने के बाद, हमें जिज्ञासु होना चाहिए कृष्ण का विज्ञान क्या है यह जानने के लिए । सद-धर्म-पृच्छात साधु-मार्ग-अनुगमनम । और इस कृष्ण भावनामृत का मतलब है हमें भक्तों के नक्शेकदम पर चलना होगा, साधु-मार्ग-अनुगमनम ।

तो वे साधु कौन हैं? यह भी शास्त्र में उल्लेख किया है कि, हमने पहले से ही चर्चा की है ।

स्वयमभूर् नारद: शम्भु:
कुमार: कपिलो मनु:
प्रहलादो जनको भीष्मो
बलिर वैयासकिर वयम
(श्रीमद भागवतम ६.३.२०)

दो ..., बारह हस्तियों का विशेष रूप से उल्लेख है, वे महाजन हैं, वे अधिकृत है, प्रामाणिक गुरु, और तुम्हे उनके मार्ग का अनुसरण करना होगा । यह मुश्किल नहीं है । तो स्वयमभू का अर्थ है ब्रह्माजी । स्वयमभूर् नारद: शम्भु: । शम्भु: का अर्थ है शिवजी । इनमें से प्रत्येक ... इन बारह महाजन में से, चार बहुत महत्वपूर्ण हैं । यही हैं स्वयमभू, मतलब ब्रह्मा, और उसके बाद फिर शंम्भु:, शिवजी, और कुमार: । और एक दूसरा संप्रदाय है, श्री संप्रदाय, लक्ष्मीजी से । इसलिए हमें परम्परा उत्तराधिकार से इन चार सम्प्रदायों में से ही सख्ती से एक आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार करना होगा | तो फिर हमें फायदा होंगा ।

अगर हम एक तथाकथित गुरु स्वीकार करते हैं, तो यह संभव नहीं होगा । हमें परम्परा उत्तराधिकार में से ही गुरु को स्वीकार करना होगा । इसलिए यह यहाँ सिफारिश की गई है, तत-पुरुष-निशेवया: हमें श्रद्धापूर्वक और हमेशा ईमानदारी से उनकी सेवा करनी चाहिए । तब हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा । अगर तुम यह कार्य अपनाते हो, कृष्ण के लिए जीवन समर्पित करना और हमेशा श्री कृष्ण की सेवा में लगे रहना तत-पुरुष के निर्देशन में - जिसका कोई अौर काम नहीं है कृष्ण भावनामृत का प्रचार करने के अलावा - तो हमारा जीवन सफल हो जाता है । हम सभी पापी प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाते हैं, और शुद्ध हुए बिना... क्योंकि कृष्ण, या भगवान, शुद्ध हैं ।

अर्जुन ने कहा, परम ब्रह्म परम धाम पवित्रम परमम भवान: "मेरे भगवान कृष्ण, आप परम शुद्ध हैं ।" तो जब तक हम शुद्ध नहीं हैं हम कृष्ण के समीप नहीं जा सकते हैं । यही शास्त्र का विधान है । आग बने बिना, तुम आग में प्रवेश नहीं कर सकते हो । इसी तरह, पूरी तरह से शुद्ध हुए बिना, तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो । यह सभी धार्मिक प्रणालीयों द्वारा स्वीकार किया जाता है । ईसाई प्रणाली भी इसी तरह है, शुद्ध हए बिना तुम परमेश्वर की दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकते हो ।