HI/Prabhupada 0209 - कैसे घर के लिए वापस जाऍ, भगवद धाम: Difference between revisions

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तो मानव जीवन इस शुद्धिकरण के लिए है । हम अपने दैनिक रोटी प्राप्त करने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं । लोगें को रोटी आलस्य में बैठ कर नहीं मिलती है । यह संभव नहीं है । वे बहुत मेहनत कर रहे हैं । डेन्वर का यह अच्छा शहर है । यह जंगल या रेगिस्तान से उछला नहीं है । बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है इस शहर को अच्छी तरह से बनाने के लिए, यह पूर्ण तरह से खड़ी है । इसलिए हमें काम करना है । अगर हम खुशी चाहते हैं, तो हमें काम करना होगा । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । लेकिन कृष्ण कहते हैं कि यान्ति देव-व्रता देवान ([[Vanisource:BG 9.25|भगी ९।२५]]) । कोई इस दुनिया में काम कर रहा है खुश होने के लिए इस भौतिक वातावरण के भीतर, बहुत बड़ा आदमी बनकर, या थोडा अधिक बुद्धिमान होकर, वे इस जीवन में खुश नहीं हैं, लेकिन वे अगले जन्म में खुश होना चाहते हैं । कभी कभी वे उच्च ग्रहों में जाना चाहते हैं । तो यान्ति देव-व्रता देवान पित्रन यान्ति पित्र-व्रता: ([[Vanisource:BG 9.25|भगी ९।२५]]) । तो जैसे तुम काम करते हो, तुम्हे इच्छित परिणाम मिलता है । लेकिन अंतिम पंक्ति में, कृष्ण कहते हैं, मद-याजिनो अपि यान्ति माम : "अगर तुम मेरे लिए काम करते हो या तुम मेरी पूजा करते हो, तो तुम मेरे पास आते हो ।" तो फिर क्या अंतर है कृष्ण के पास जाने में और इस भौतिक दुनिया में रहने में? फर्क है अाब्रह्म-भुवनाल लोका: पुनर अावर्तिनो अर्जुन ([[Vanisource:BG 8.16|भगी ८।१६]]) इस भौतिक दुनिया में, अगर तुम सर्वोच्च ग्रह, ब्रह्मलोक पर भी चले गए, फिर भी, वहॉ जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी है । या फिर तुम्हे फिर से वापस लौटना होगा । वैसे ही जैसे यह लोग चंद्रमा ग्रह पर जा रहे हैं और फिर यहां वापस आ रहे हैं । तो इस तरह का जाना और यहां वापस आना अच्छा नहीं है । यद गत्वा न निवर्तन्ते ([[Vanisource:BG 15.6|भगी १५।६]]) अगर तुम इस तरह के ग्रह में जाअो जहाँ से तुम्हे इस भौतिक दुनिया में फिर से वापस आना न पडे, यही उच्चतम पूर्णता है । यही कृष्णलोक है । तो कृष्ण कहते हैं कि, "अगर तुम इस भौतिक संसार में सुख होने के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहे हो, वही श्रम अगर तुम मेरी पूजा में लगाअो , कृष्ण, तब तुम मेरे पास आओगे । " मद-याजिनो अपि यान्ति माम । विशेष रूप से लाभ क्या है? माम उपेत्य कौन्तेय दुक्खालयम अशाशव्तम नाप्नुवन्ति ([[Vanisource:BG 8.15|भगी ८।१५]]) "जो भी मेरे पास आता है, उसे इस भौतिक दुनिया को फिर से वापस आना नहीं पडता है ।" इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है कैसे घर के लिए वापस जाऍ, देवत्व को वापस, कृष्ण । यही लोगों को सदा खुशी देगा । इसलिए इस जीवन में भी, श्री कृष्ण के प्रति जागरूक लोग, वे दुखी नहीं हैं । तुम व्यावहारिक रूप से देख सकते हो । हम एक बहुत अच्छा कमरे में बैठे हैं और हरे कृष्ण जाप कर रहें हैं और प्रसाद ले रहे हैं । दुख कहां है? कोई दुख नहीं है । और अन्य प्रक्रियाऍ, उन्हे इतने दुखी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है । इधर, कृष्ण भावनामृत, कुछ भी दुख नहीं है । भगवद गीता में कहा गया है कि : सुसुखम कर्तुम अव्ययम ([[Vanisource:BG 9.2|भगी ९।२]]) सुसुखम । जब तुम भक्ति सेवा पर अमल करते हो, यह न केवल सुखम है - सुखम का मतलब है खुशी- लेकिन एक और शब्द जोड़ा जाता है, सुसुखम, 'बहुत खुश, बहुत ही आराम से । " कर्तुम, भक्ति सेवा को निष्पादित करना, बहुत खुशी की बात है, बड़ी खुशी । और अव्ययम । अव्ययम का मतलब है कि तुम जो भी करो वह तुम्हारी स्थायी संपत्ति है । अन्य बातें स्थायी नहीं हैं । मान लो तुम बहुत ज्यादा उन्नत शिक्षित व्यक्ति हो, तुम्ने एमए, पीएचडी, और कुछ, कुछ किया है । लेकिन यह अव्ययम नहीं है, यह व्ययम है । व्ययम का मतलब, यह स्थायी नहीं है । जैसे ही तुम्हारा शरीर समाप्त होगा, तुम्हारे तथाकथित डिग्री सब समाप्त हो जाऍगे । तो फिर अगले जन्म में, अगर तुम्हे मानव जन्म मिलता है ... बेशक एमए, पीएचडी, बनने का मौका फिर वहाँ है लेकिन पहले वाला एम.ए., पीएच.डी. इस जीवन का, वह समाप्त हो गया है । तो जो कुछ भी हम यहाँ प्राप्त कर रहे हैं वह अव्ययम नहीं है । व्ययम का मतलब है खर्चा, और 'अ' का मतलब है "नहीं" , जो खर्चा नहीं जा सकता है । अगर तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं, अगर तुम खर्चा करते हो, तो यह व्ययम है, कुछ समय के बाद समाप्त होने वाला । अव्ययम का मतलब है तुम जितना भी खर्चना चाहो, वह अभी भी समाप्त नहीं होता है, यही अव्ययम है । तो कृष्ण की भक्ति सेवा को समझाया है सुसुखम कर्तुम अव्ययम । जो भी तुम करते हो, अगर तुम्हे लगता है कि सफलता दस प्रतिशत प्राप्त किया है, यह दस प्रतिशत तुम्हारा स्थायी है । इसलिए यह भगवद गीता में कहा गया है, शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योग-भ्रश्टो सन्जायते ([[Vanisource:BG 6.41|भगी ६।४१]]) जो लोग इस जीवन में भक्ति योग खत्म नहीं कर सके , उन्हे एक और मौका मिलेगा मानव जीवन का । न केवल मानव जीवन, यह कहा गया है कि वे स्वर्गीय ग्रह में जाते हैं , वे वहाँ आनंद लेते हैं, और उसके बाद फिर से इस ग्रह में वापस आते हैं । और यह भी वे साधारण आदमी नहीं हैं । शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे: वह बहुत पवित्र परिवार में जन्म लेते हैं, जैसे ब्राह्मण-वैशनव, शुचीनाम, और श्रीमताम, बहुत अमीर परिवार । तो यह उसका कर्तव्य है । तो जो लोग अमीर पैदा होते हैं ... तुम अमेरिकि, तुम अमीर पैदा हुए लोग समझे जाते हो । वास्तव में ऐसा ही है । तो तुम्हे एसा सोचना चाहिए कि "हमारे पिछले भक्ति सेवा के कारण, कृष्ण की कृपा से इस देश में हमारा जन्म हुअा है । कोई गरीबी नहीं है, श्रीमताम । तो तुम्हे इस कृष्ण भावनामृत को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए । तुम्हे मौका मिला है । तुम गरीब नहीं हो । तुम्हे अपना समय बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है, "भोजन कहां है? भोजन कहां है? भोजन कहां है?" दूसरे गरीबी से त्रस्त देशों की तरह, वे भोजन पता लगाने के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं । लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो, तो हिप्पी बनकर इस अवसर को बर्बाद मत करो । बर्बाद मत करो । भक्त बनो, कृष्ण के भक्त । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है, और हमारे कई केन्द्र हैं । बस इस कृष्ण भावनामरत विज्ञान को जानने की कोशिश करो और अपने जीवन को परिपूर्ण बनाअो । यह हमारा अनुरोध है
तो मानव जीवन इस शुद्धिकरण के लिए है । हम अपने दैनिक रोटी प्राप्त करने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं । लोगें को रोटी आलस्य में बैठ कर नहीं मिलती है । यह संभव नहीं है । वे बहुत मेहनत कर रहे हैं । डेन्वर का यह अच्छा शहर है । यह जंगल या रेगिस्तान से उछला नहीं है । बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है इस शहर को अच्छी तरह से बनाने के लिए, यह पूर्ण तरह से खड़ा है । इसलिए हमें काम करना है । अगर हम खुशी चाहते हैं, तो हमें काम करना होगा । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । लेकिन कृष्ण कहते हैं कि यान्ति देव-व्रता देवान ([[HI/BG 9.25|भ.गी. ९।२५]]) ।  


बहुत बहुत धन्यवाद ।
कोई इस दुनिया में  काम कर रहा है खुश होने के लिए इस भौतिक वातावरण के भीतर, बहुत बड़ा आदमी बनकर, या थोडा अधिक बुद्धिमान होकर, वे इस जीवन में खुश नहीं हैं, लेकिन वे अगले जन्म में खुश होना चाहते हैं । कभी कभी वे उच्च ग्रहों में जाना चाहते हैं । तो यान्ति देव-व्रता देवान पितृन यान्ति पितृ-व्रता: ([[HI/BG 9.25|भ.गी. ९।२५]]) । तो जैसे तुम काम करते हो, तुम्हे इच्छित परिणाम मिलता है । लेकिन अंतिम पंक्ति में, कृष्ण कहते हैं, मद्याजीनो अपि यान्ति माम : "अगर तुम मेरे लिए काम करते हो या तुम मेरी पूजा करते हो, तो तुम मेरे पास आते हो ।" तो फिर क्या अंतर है कृष्ण के पास जाने में और इस भौतिक दुनिया में रहने में?
 
फर्क है अाब्रह्म-भुवनाल लोका: पुनर अावर्तिनो अर्जुन ([[HI/BG 8.16|भ.गी. ८।१६]]) | इस भौतिक दुनिया में, अगर तुम सर्वोच्च ग्रह, ब्रह्मलोक पर भी चले गए, फिर भी, वहॉ जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी है । या फिर तुम्हे फिर से वापस लौटना होगा । वैसे ही जैसे यह लोग चंद्र ग्रह पर जा रहे हैं और फिर यहां वापस आ रहे हैं । तो  इस तरह का जाना और यहां वापस आना अच्छा नहीं है । यद गत्वा न निवर्तन्ते ([[HI/BG 15.6|भ.गी. १५।६]]) |
 
अगर तुम इस तरह के ग्रह में जाअो जहाँ से तुम्हे इस भौतिक दुनिया में फिर से वापस आना न पडे,  यही उच्चतम पूर्णता है । यही कृष्णलोक है । तो कृष्ण कहते हैं कि,  "अगर तुम इस भौतिक संसार में सुखी होने के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहे हो, वही श्रम अगर तुम मेरी, कृष्णकी, पूजा में लगाअो, तो तुम मेरे पास आओगे । " मद्याजीनो अपि यान्ति माम । विशेष रूप से लाभ क्या है? माम उपेत्य कौन्तेय दुक्खालयम अशाशवतम नाप्नुवन्ति ([[HI/BG 8.15|भ.गी. ८।१५]]) "जो भी मेरे पास आता है, उसे इस भौतिक दुनिया में फिर से वापस आना नहीं पडता है ।"
 
इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है कैसे भगवद धाम, कृष्ण, के पास वापस जाय । यही लोगों को शाश्वत खुशी देगा । इसलिए इस जीवन में भी, श्री कृष्ण के प्रति जागरूक लोग, वे दुखी नहीं हैं । तुम व्यावहारिक रूप से देख सकते हो । हम एक बहुत अच्छे कमरे में बैठे हैं और हरे कृष्ण जप कर रहें हैं और प्रसाद ले रहे हैं । दुख कहां है? कोई दुख नहीं है । और अन्य प्रक्रियाऍ, उन्हे इतने दुखी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है । इधर, कृष्ण भावनामृत, कुछ भी दुख नहीं है । भगवद गीता में कहा गया है कि: सुसुखम कर्तुम अव्ययम ([[HI/BG 9.2|भ.गी. ९।२]]) | सुसुखम । 
 
जब तुम भक्ति सेवा पर अमल करते हो,  यह न केवल सुखम है - सुखम का मतलब है खुशी- लेकिन एक और शब्द जोड़ा जाता है, सुसुखम,  'बहुत खुशीसे, बहुत ही आराम से । " कर्तुम, भक्ति सेवा को निष्पादित करना,  बहुत खुशी की बात है, बड़ी खुशी । और अव्ययम । अव्ययम का मतलब है कि तुम जो भी करो वह तुम्हारी स्थायी संपत्ति है । अन्य बातें स्थायी नहीं हैं ।  मान लो तुम बहुत ज्यादा उन्नत शिक्षित व्यक्ति हो, तुम्ने एमए, पीएचडी, और कुछ, कुछ किया है । लेकिन यह अव्ययम नहीं है, यह व्ययम है । व्ययम का मतलब, यह स्थायी नहीं है । जैसे ही तुम्हारा शरीर समाप्त होगा, तुम्हारे तथाकथित डिग्री सब समाप्त हो जाऍगे । तो फिर अगले जन्म में, अगर तुम्हे मानव जन्म मिलता है  ... बेशक एमए, पीएचडी, बनने का मौका फिर वहाँ है, लेकिन पहले वाला एम.ए., पीएच.डी. इस जीवन का, वह समाप्त हो गया है ।
 
तो जो कुछ भी हम यहाँ प्राप्त कर रहे हैं वह अव्ययम नहीं है । व्ययम  का मतलब है खर्चा, और 'अ' का मतलब है "नहीं" , जो खर्चा नहीं जा सकता है । अगर तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं, अगर तुम खर्चा करते हो, तो यह व्ययम है, कुछ समय के बाद समाप्त होने वाला । अव्ययम का मतलब है तुम जितना भी खर्चना चाहो, वह कभी भी समाप्त नहीं होता है, यही अव्ययम है । तो कृष्ण की भक्ति सेवा को समझाया है सुसुखम कर्तुम अव्ययम । जो भी तुम करते हो, अगर तुम्हे लगता है कि सफलता दस प्रतिशत प्राप्त किया है, यह दस प्रतिशत तुम्हारा स्थायी है ।
 
इसलिए यह भगवद गीता में कहा गया है, शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योग-भ्रष्टो सन्जायते ([[HI/BG 6.41|भ.गी. ६।४१]]) | जो लोग इस जीवन में भक्ति योग खत्म नहीं कर सके, उन्हे एक और मौका मिलेगा मानव जीवन का । न केवल मानव जीवन, यह कहा गया है कि वे स्वर्गीय ग्रह में जाते हैं, वे वहाँ आनंद लेते हैं, और उसके बाद फिर से इस ग्रह में वापस आते हैं ।  और यह भी वे साधारण आदमी नहीं हैं । शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे: वह बहुत पवित्र परिवार में जन्म लेते हैं, जैसे ब्राह्मण-वैष्णव, शुचीनाम, और श्रीमताम, बहुत अमीर परिवार । तो यह उसका कर्तव्य है ।
 
तो जो लोग अमीर पैदा होते हैं  ... तुम अमेरिकी,  तुम अमीर पैदा हुए लोग समझे जाते हो । वास्तव में ऐसा ही है । तो तुम्हे एसा सोचना चाहिए कि "हमारे पिछले भक्ति सेवा के कारण, कृष्ण की कृपा से इस देश में हमारा जन्म हुअा है । कोई गरीबी नहीं है, श्रीमताम । तो तुम्हे इस कृष्ण भावनामृत को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए । तुम्हे मौका मिला है । तुम गरीब नहीं हो । तुम्हे अपना समय बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है, "भोजन कहां है? भोजन कहां है? भोजन कहां है?" दूसरे गरीबी से त्रस्त देशों की तरह, वे भोजन पता लगाने के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं । लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो, तो हिप्पी बनकर इस अवसर को बर्बाद मत करो  । बर्बाद मत करो । भक्त बनो, कृष्ण के भक्त । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है, और हमारे कई केन्द्र हैं । बस इस कृष्ण भावनामृत विज्ञान को जानने की कोशिश करो और अपने जीवन को परिपूर्ण बनाअो । यह हमारा अनुरोध है । 
 
बहुत बहुत धन्यवाद ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 6.1.16 -- Denver, June 29, 1975

तो मानव जीवन इस शुद्धिकरण के लिए है । हम अपने दैनिक रोटी प्राप्त करने के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं । लोगें को रोटी आलस्य में बैठ कर नहीं मिलती है । यह संभव नहीं है । वे बहुत मेहनत कर रहे हैं । डेन्वर का यह अच्छा शहर है । यह जंगल या रेगिस्तान से उछला नहीं है । बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है इस शहर को अच्छी तरह से बनाने के लिए, यह पूर्ण तरह से खड़ा है । इसलिए हमें काम करना है । अगर हम खुशी चाहते हैं, तो हमें काम करना होगा । इसके बारे में कोई संदेह नहीं है । लेकिन कृष्ण कहते हैं कि यान्ति देव-व्रता देवान (भ.गी. ९।२५) ।

कोई इस दुनिया में काम कर रहा है खुश होने के लिए इस भौतिक वातावरण के भीतर, बहुत बड़ा आदमी बनकर, या थोडा अधिक बुद्धिमान होकर, वे इस जीवन में खुश नहीं हैं, लेकिन वे अगले जन्म में खुश होना चाहते हैं । कभी कभी वे उच्च ग्रहों में जाना चाहते हैं । तो यान्ति देव-व्रता देवान पितृन यान्ति पितृ-व्रता: (भ.गी. ९।२५) । तो जैसे तुम काम करते हो, तुम्हे इच्छित परिणाम मिलता है । लेकिन अंतिम पंक्ति में, कृष्ण कहते हैं, मद्याजीनो अपि यान्ति माम : "अगर तुम मेरे लिए काम करते हो या तुम मेरी पूजा करते हो, तो तुम मेरे पास आते हो ।" तो फिर क्या अंतर है कृष्ण के पास जाने में और इस भौतिक दुनिया में रहने में?

फर्क है अाब्रह्म-भुवनाल लोका: पुनर अावर्तिनो अर्जुन (भ.गी. ८।१६) | इस भौतिक दुनिया में, अगर तुम सर्वोच्च ग्रह, ब्रह्मलोक पर भी चले गए, फिर भी, वहॉ जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी है । या फिर तुम्हे फिर से वापस लौटना होगा । वैसे ही जैसे यह लोग चंद्र ग्रह पर जा रहे हैं और फिर यहां वापस आ रहे हैं । तो इस तरह का जाना और यहां वापस आना अच्छा नहीं है । यद गत्वा न निवर्तन्ते (भ.गी. १५।६) |

अगर तुम इस तरह के ग्रह में जाअो जहाँ से तुम्हे इस भौतिक दुनिया में फिर से वापस आना न पडे, यही उच्चतम पूर्णता है । यही कृष्णलोक है । तो कृष्ण कहते हैं कि, "अगर तुम इस भौतिक संसार में सुखी होने के लिए इतनी मेहनत से काम कर रहे हो, वही श्रम अगर तुम मेरी, कृष्णकी, पूजा में लगाअो, तो तुम मेरे पास आओगे । " मद्याजीनो अपि यान्ति माम । विशेष रूप से लाभ क्या है? माम उपेत्य कौन्तेय दुक्खालयम अशाशवतम नाप्नुवन्ति (भ.गी. ८।१५) "जो भी मेरे पास आता है, उसे इस भौतिक दुनिया में फिर से वापस आना नहीं पडता है ।"

इसलिए हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन लोगों को सिखा रहा है कैसे भगवद धाम, कृष्ण, के पास वापस जाय । यही लोगों को शाश्वत खुशी देगा । इसलिए इस जीवन में भी, श्री कृष्ण के प्रति जागरूक लोग, वे दुखी नहीं हैं । तुम व्यावहारिक रूप से देख सकते हो । हम एक बहुत अच्छे कमरे में बैठे हैं और हरे कृष्ण जप कर रहें हैं और प्रसाद ले रहे हैं । दुख कहां है? कोई दुख नहीं है । और अन्य प्रक्रियाऍ, उन्हे इतने दुखी प्रक्रियाओं से गुजरना पडता है । इधर, कृष्ण भावनामृत, कुछ भी दुख नहीं है । भगवद गीता में कहा गया है कि: सुसुखम कर्तुम अव्ययम (भ.गी. ९।२) | सुसुखम ।

जब तुम भक्ति सेवा पर अमल करते हो, यह न केवल सुखम है - सुखम का मतलब है खुशी- लेकिन एक और शब्द जोड़ा जाता है, सुसुखम, 'बहुत खुशीसे, बहुत ही आराम से । " कर्तुम, भक्ति सेवा को निष्पादित करना, बहुत खुशी की बात है, बड़ी खुशी । और अव्ययम । अव्ययम का मतलब है कि तुम जो भी करो वह तुम्हारी स्थायी संपत्ति है । अन्य बातें स्थायी नहीं हैं । मान लो तुम बहुत ज्यादा उन्नत शिक्षित व्यक्ति हो, तुम्ने एमए, पीएचडी, और कुछ, कुछ किया है । लेकिन यह अव्ययम नहीं है, यह व्ययम है । व्ययम का मतलब, यह स्थायी नहीं है । जैसे ही तुम्हारा शरीर समाप्त होगा, तुम्हारे तथाकथित डिग्री सब समाप्त हो जाऍगे । तो फिर अगले जन्म में, अगर तुम्हे मानव जन्म मिलता है ... बेशक एमए, पीएचडी, बनने का मौका फिर वहाँ है, लेकिन पहले वाला एम.ए., पीएच.डी. इस जीवन का, वह समाप्त हो गया है ।

तो जो कुछ भी हम यहाँ प्राप्त कर रहे हैं वह अव्ययम नहीं है । व्ययम का मतलब है खर्चा, और 'अ' का मतलब है "नहीं" , जो खर्चा नहीं जा सकता है । अगर तुम्हारे पास कुछ पैसे हैं, अगर तुम खर्चा करते हो, तो यह व्ययम है, कुछ समय के बाद समाप्त होने वाला । अव्ययम का मतलब है तुम जितना भी खर्चना चाहो, वह कभी भी समाप्त नहीं होता है, यही अव्ययम है । तो कृष्ण की भक्ति सेवा को समझाया है सुसुखम कर्तुम अव्ययम । जो भी तुम करते हो, अगर तुम्हे लगता है कि सफलता दस प्रतिशत प्राप्त किया है, यह दस प्रतिशत तुम्हारा स्थायी है ।

इसलिए यह भगवद गीता में कहा गया है, शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योग-भ्रष्टो सन्जायते (भ.गी. ६।४१) | जो लोग इस जीवन में भक्ति योग खत्म नहीं कर सके, उन्हे एक और मौका मिलेगा मानव जीवन का । न केवल मानव जीवन, यह कहा गया है कि वे स्वर्गीय ग्रह में जाते हैं, वे वहाँ आनंद लेते हैं, और उसके बाद फिर से इस ग्रह में वापस आते हैं । और यह भी वे साधारण आदमी नहीं हैं । शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे: वह बहुत पवित्र परिवार में जन्म लेते हैं, जैसे ब्राह्मण-वैष्णव, शुचीनाम, और श्रीमताम, बहुत अमीर परिवार । तो यह उसका कर्तव्य है ।

तो जो लोग अमीर पैदा होते हैं ... तुम अमेरिकी, तुम अमीर पैदा हुए लोग समझे जाते हो । वास्तव में ऐसा ही है । तो तुम्हे एसा सोचना चाहिए कि "हमारे पिछले भक्ति सेवा के कारण, कृष्ण की कृपा से इस देश में हमारा जन्म हुअा है । कोई गरीबी नहीं है, श्रीमताम । तो तुम्हे इस कृष्ण भावनामृत को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए । तुम्हे मौका मिला है । तुम गरीब नहीं हो । तुम्हे अपना समय बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है, "भोजन कहां है? भोजन कहां है? भोजन कहां है?" दूसरे गरीबी से त्रस्त देशों की तरह, वे भोजन पता लगाने के लिए शर्मिंदा हो रहे हैं । लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो, तो हिप्पी बनकर इस अवसर को बर्बाद मत करो । बर्बाद मत करो । भक्त बनो, कृष्ण के भक्त । यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है, और हमारे कई केन्द्र हैं । बस इस कृष्ण भावनामृत विज्ञान को जानने की कोशिश करो और अपने जीवन को परिपूर्ण बनाअो । यह हमारा अनुरोध है ।

बहुत बहुत धन्यवाद ।