HI/Prabhupada 0210 - पूरा भक्ति मार्ग भगवान की दया पर निर्भर करता है: Difference between revisions

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तो अगर तुम समझना चाहते हो भगवद गीता को, तो हमें उही तरह से समझ होगा जैसे उस व्यक्ति नें सुना । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । मान लीजिए मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु से कुछ सुना है, तो मैं तुम्हें वही बात बातता हूँ । तो यह परम्परा प्रणाली है । तुम मेरे आध्यात्मिक गुरु ने क्या कहा इसकी कल्पना मत करो । या भले ही तुमने कुछ किताबें पढ़ी हों, तुम नहीं समझ सकते हो जब तक तुम मुझ से न समझो । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । तुम श्रेष्ठतर गुरु तक नहीं पहुँच सकते हो, कहने का मतलब है, तत्काल अगले आचार्य की उपेक्षा करके, अगले आचार्य । बस हमारी तरह, इस गऊ ..., चैतन्य महाप्रभु का पंथ, हम सीधे चैतन्य महाप्रभु को नहीं समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । हमें गोस्वामीयों के माध्यम से समझना होगा । इसलिए तुम पाअोगे चैतन्य-चरितामृत में और हर अध्याय के अंत में, लेखक कहते हैं, रूप-रघुनाथे-पदे ... वह क्या है? कृष्णदास । रूप-रघुनाथे-पदे सदा यार अाशा चैतन्य-चिरतामृत कहे कृष्ण-दास यह प्रक्रिया है । वे नहीं कहते कि, "मैं सीधे भगवान चैतन्य महाप्रभु को समझ चुका हूँ ।" नहीं । समझ यह नहीं है । यही मूर्खता है । तुम नहीं समझ सकते चैतन्य महाप्रभु हैं क्या । इसलिए बार बार वह कहते हैं, रूप-रघुनाथ-पदे सदा यार अाशा चैतन्य-चिरतामृत कहे कृष्ण-दास । "मैं वह कृष्ण दासा हूँ, कवीराज, जो हमेशा गौस्वामीयों की अधीनता के तहत है ।" यह परम्परा प्रणाली है । इसी तरह, नरोत्तम दासा ठाकुर भी कहते हैं, एइ छाय गोसाई जार तार मुइ दास, "मैं उस व्यक्ति का दास हूं जिसने इन छह गौस्वामीयों को स्वीकार किया है अपने स्वामी के रूप में । मैं किसी अौर का सेवक नहीं बनूँगा जिसने स्वीकारा नहीं है रास्ता और साधन...." इसलिए, हम कहते हैं, या हम अपने आध्यात्मिक गुरु को प्रार्थना करते हैं रूपानुग-वराय ते, रुपानुग-वरायते, क्योंकि वह रूप गोस्वामी का अनुसरण करते हैं, इसलिए हम उन्हे स्वीकार करते हैं , अाध्यात्मिक गुरु के रूप में ऐसा नहीं है कि हम रूप गोस्वामी से बेहतर हो गए हैं,... नहीं । तांदेर चरण-सेबि-भक्त-सने-वास । यह परम्परा प्रणाली है । अब यहाँ, एक ही बात को दोहराया गया है: अर्जुन जिसने सीधे कृष्ण से सुना। कभी कभी, कुछ लोगों का कहना है - यह धूर्तता है - कि "अर्जुन नें कृष्ण से सीधे सुना है, लेकिन हम अपनी उपस्थिति में कृष्ण को नहीं पाते हैं, तो मैं कैसे स्वीकार करूँ ? " यह प्रत्यक्ष उपस्थिति का सवाल नहीं है, क्योंकि तुम्हे पूर्ण ज्ञान का कोई पता नहीं है । कृष्ण के शब्द, भगवद गीता, कृष्ण से अलग नहीं हैं । यह कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब तुम भगवद गीता सुनते हो, तुम सीधे कृष्ण से सुन रहे हो, क्योंकि कृष्ण अलग नहीं हैं । कृष्ण निरपेक्ष हैं । कृष्ण, कृष्ण का नाम, कृष्ण का रूप, कृष्ण की गुणवत्ता, कृष्ण की शिक्षा, सब कुछ कृष्ण का, वे सब कृष्ण हैं । वे सभी कृष्ण हैं । यह समझा जा सकता है । वे कृष्ण से अलग नहीं हैं । इसलिए कृष्ण का रूप है, यहाँ कृष्ण हैं । वह एक मूर्ति नहीं है । "वह एक संगमरमर की प्रतिमा हैं ।" नहीं, वह कृष्ण हैं । वह तुम्हारे सामने प्रकट हुए हैं क्योंकि तुम कृष्ण को नहीं देख सकते हो । तुम पत्थर, लकड़ी देख सकते हो, इसलिए वह उस रूप में प्रकट हुए हैं । तुम्हे लगता है कि यह पत्थर और लकड़ी है , लेकिन वह पत्थर और लकड़ी नहीं है, वह कृष्ण हैं । यह पूर्ण सत्य कहा जाता है । इसी तरह, कृष्ण के शब्द भी कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब कृष्ण के शब्द हैं भगवद गीता में, यह कृष्ण हैं । जैसे वह दक्षिण भारतीय ब्राह्मण । जैसे ही उसने खोला ... वह अनपढ़ था, वह भगवद गीता नहीं पढ़ सकता था । लेकिन उनके गुरु महाराज ने कहा कि "तुम्हे हर दिन भगवद गीता के अठारह अध्यायों पढ़ने होंगे ।" तो हैरान था, कि, "मैं अनपढ़ हूँ, मैं नहीं कर सकता ... ठीक है, मुझे ले लेना ..., भगवद गीता ।" तो वह एक रंगनाथ मंदिर में था । उसने भगवद गीता ली और इस तरह से चलता रहा । वह नहीं पढ़ सकता था । इसलिए उसके दोस्त, जिन्हे पता था, वे मजाक कर रहे थे "ठीक है, ब्राह्मण, कैसे तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने जवाब नहीं दिया क्योंकि वह जानता था कि वे मजाक उडा रहे हैं क्योंकि "मैं नहीं जानता ... मैं अनपढ़ हूँ ।" लेकिन जब चैतन्य महाप्रभु अाए, वह भी हैरान थे, "ब्राह्मण, तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने कहा, "सर, मैं अनपढ़ हूँ । मैं नहीं पढ़ सकता । यह संभव नहीं है । लेकिन मेरे गुरु महाराज नें मुझे पढ़ने का आदेश दिया है । मैं क्या करूँ? मैंनें इस किताब को ले लिया है ।" यह गुरु के शब्द के कट्टर अनुयायी हैं । वह अनपढ़ है । वह नहीं पढ़ सकते है । कोई संभावना नहीं है । लेकिन उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया "तुम्हे भगवद गीता दैनिक, अठारह अध्यायों को पढ़ना होगा ।" अब यह क्या है? इस व्वसायात्मिका बुद्धि: कहा जाता है । मैं काफी अधूरा हो सकता हूँ । कोई बात नहीं है । लेकिन अगर मैं अपने गुरु महाराज के शब्दों का पालन करने की कोशिश करते हूँ , तो मैं पूरा हो जाता हूँ । यही रहस्य है । यस्य देवे परा भक्तिर यथा देवे तथा गुरौ ( श्वे उ ६।२३) अगर हमें देवत्व के परम व्यक्तित्व में मजबूत विश्वास है और गुरु पर उतना ही विश्वास है, तो यथा देवे तथा गुरौ, तो शास्त्र प्रकट हो जाते हैं । यह शिक्षा नहीं है । यह छात्रवृत्ति नहीं है । यह कृष्ण और गुरु में विश्वास है । इसलिए चैतन्य-चरितामृत कहता है गुरु कृष्ण-कृपाय पाए भक्ति-लता-बीज (चै च मध्य १९।१५१) शिक्षा से नहीं, छात्रवृत्ति से नहीं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, गुरु कृष्ण-कृपाय, गुरु की दया से, कृष्ण की कृपा से । यह दया का सवाल है । यह छात्रवृत्ति या संपन्नता या समृद्धि का सवाल नहीं है । नहीं । पूरा भक्ति-मार्ग भगवान की दया पर निर्भर करता है । इसलिए हमें दया की भीख माँगनी होगी । अथापि ते देव पदामभुज-द्वया-प्रसाद-लेशानुग्रहीत एव हि, जानाति तत्वम ( श्री भ१०।१४।२९) प्रसाद-लेश, लेश का मतलब है अंश । जिसको परम की दया का एक छोटा सा अंश प्राप्त हुआ है , वह समझ सकता है । दूसरों को, न चान्य एको अपि चिरम विचिन्वन । अन्य, वे लाखों साल के लिए अटकलें करते रहें । समझना संभव है । तो भगवद गीता यथार्थ , इसलिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि हम प्रस्तुत कर रहे हैं भगवद गीता जैसे अर्जुन नें समझ था । हम डॉ. राधाकृष्णन, इस विद्वान, उस विद्वान, इस बदमाश, के पास नहीं जाते ....नहीं । हम नहीं जाते । यही हमारा काम नहीं है । यही परम्परा है ।
तो अगर तुम समझना चाहते हो भगवद गीता को, तो हमें उही तरह से समझना होगा जैसे उस व्यक्ति नें सुना । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । मान लीजिए मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु से कुछ सुना है, तो मैं तुम्हें वही बात बातता हूँ । तो यह परम्परा प्रणाली है । तुम मेरे आध्यात्मिक गुरु ने क्या कहा इसकी कल्पना मत करो । या भले ही तुमने कुछ किताबें पढ़ी हों, तुम नहीं समझ सकते हो जब तक तुम मुझ से न समझो । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । तुम श्रेष्ठतर गुरु तक नहीं पहुँच सकते हो, कहने का मतलब है, तत्काल अगले आचार्य की उपेक्षा करके, अगले आचार्य । बस हमारी तरह, इस गऊ ..., चैतन्य महाप्रभु का पंथ, हम सीधे चैतन्य महाप्रभु को नहीं समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । हमें गोस्वामीयों के माध्यम से समझना होगा । इसलिए तुम पाअोगे चैतन्य-चरितामृत में और हर अध्याय के अंत में, लेखक कहते हैं, रूप-रघुनाथे-पदे ... वह क्या है? कृष्णदास ।  
 
:रूप-रघुनाथे-पदे सदा यार अाश
:चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्ण-दास  
 
यह प्रक्रिया है । वे नहीं कहते कि, "मैं सीधे भगवान चैतन्य महाप्रभु को समझ चुका हूँ ।" नहीं । समझ यह नहीं है । यह मूर्खता है । तुम नहीं समझ सकते चैतन्य महाप्रभु क्या हैं । इसलिए बार बार वह कहते हैं, रूप-रघुनाथ-पदे सदा यार अाश चैतन्य-चिरतामृत कहे कृष्ण-दास । "मैं वह कृष्ण दास हूँ, कवीराज, जो हमेशा गौस्वामीयों की अधीनता के तहत है ।" यह परम्परा प्रणाली है । इसी तरह, नरोत्तम दास ठाकुर भी कहते हैं, एइ छाय गोसाई जार तार मुइ दास, "मैं उस व्यक्ति का दास हूं जिसने इन छह गौस्वामीयों को स्वीकार किया है अपने स्वामी के रूप में । मैं किसी अौर का सेवक नहीं बनूँगा जिसने स्वीकारा नहीं है रास्ता और साधन...." इसलिए, हम कहते हैं, या हम अपने आध्यात्मिक गुरु को प्रार्थना करते हैं रूपानुग-वराय ते, रुपानुग-वराय ते, क्योंकि वह रूप गोस्वामी का अनुसरण करते हैं, इसलिए हम उन्हे स्वीकार करते हैं , अाध्यात्मिक गुरु के रूप में | ऐसा नहीं है कि हम रूप गोस्वामी से बेहतर हो गए हैं,... नहीं । तांदेर चरण-सेबि-भक्त-सने-वास । यह परम्परा प्रणाली है ।  
 
अब यहाँ, एक ही बात को दोहराया गया है: अर्जुन जिसने सीधे कृष्ण से सुना। कभी कभी, कुछ लोगों का कहना है - यह धूर्तता है - कि "अर्जुन नें कृष्ण से सीधे सुना है, लेकिन हम अपनी उपस्थिति में कृष्ण को नहीं पाते हैं, तो मैं कैसे स्वीकार करूँ ? " यह प्रत्यक्ष उपस्थिति का सवाल नहीं है, क्योंकि तुम्हे पूर्ण ज्ञान का कोई पता नहीं है । कृष्ण के शब्द, भगवद गीता, कृष्ण से अलग नहीं हैं । यह कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब तुम भगवद गीता सुनते हो, तुम सीधे कृष्ण से सुन रहे हो, क्योंकि कृष्ण अलग नहीं हैं । कृष्ण परम निरपेक्ष हैं ।  
 
कृष्ण, कृष्ण का नाम, कृष्ण का रूप, कृष्ण की गुणवत्ता, कृष्ण की शिक्षा, सब कुछ कृष्ण का, वे सब कृष्ण हैं । वे सभी कृष्ण हैं । यह समझा जा सकता है । वे कृष्ण से अलग नहीं हैं । इसलिए कृष्ण का रूप है, यहाँ कृष्ण हैं । वह एक मूर्ति नहीं है । "वह एक संगमरमर की प्रतिमा हैं ।" नहीं, वह कृष्ण हैं । वह तुम्हारे सामने प्रकट हुए हैं क्योंकि तुम कृष्ण को नहीं देख सकते हो । तुम पत्थर, लकड़ी देख सकते हो, इसलिए वह उस रूप में प्रकट हुए हैं । तुम्हे लगता है कि यह पत्थर और लकड़ी है , लेकिन वह पत्थर और लकड़ी नहीं है, वह कृष्ण हैं । यह पूर्ण सत्य कहा जाता है । इसी तरह, कृष्ण के शब्द भी कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब कृष्ण के शब्द हैं भगवद गीता में, यह कृष्ण हैं ।  
 
जैसे वह दक्षिण भारतीय ब्राह्मण । जैसे ही उसने खोला ... वह अनपढ़ था, वह भगवद गीता नहीं पढ़ सकता था । लेकिन उनके गुरु महाराज ने कहा कि "तुम्हे हर दिन भगवद गीता के अठारह अध्यायों पढ़ने होंगे ।" तो हैरान था, कि, "मैं अनपढ़ हूँ, मैं नहीं कर सकता ... ठीक है, चलो शुरू करू ..., भगवद गीता ।" तो वह एक रंगनाथ मंदिर में था । उसने भगवद गीता ली और इस तरह से चलता रहा । वह नहीं पढ़ सकता था । इसलिए उसके दोस्त, जिन्हे पता था, वे मजाक कर रहे थे "ठीक है, ब्राह्मण, कैसे तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने जवाब नहीं दिया क्योंकि वह जानता था कि वे मजाक उडा रहे हैं क्योंकि "मैं नहीं जानता ... मैं अनपढ़ हूँ ।" लेकिन जब चैतन्य महाप्रभु अाए, वह भी हैरान थे, "ब्राह्मण, तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने कहा, "प्रभु, मैं अनपढ़ हूँ । मैं नहीं पढ़ सकता । यह संभव नहीं है । लेकिन मेरे गुरु महाराज नें मुझे पढ़ने का आदेश दिया है । मैं क्या करूँ? मैंनें इस किताब को ले लिया है ।" यह गुरु के शब्द के कट्टर अनुयायी हैं । वह अनपढ़ है । वह नहीं पढ़ सकता । कोई संभावना नहीं है ।  
 
लेकिन उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया "तुम्हे भगवद गीता दैनिक, अठारह अध्यायों को पढ़ना होगा ।" अब यह क्या है? इस व्यवसायात्मिका बुद्धि: कहा जाता है । मैं काफी अधूरा हो सकता हूँ । कोई बात नहीं है । लेकिन अगर मैं अपने गुरु महाराज के शब्दों का पालन करने की कोशिश करते हूँ, तो मैं पूरा हो जाता हूँ । यही रहस्य है । यस्य देवे परा भक्तिर यथा देवे तथा गुरौ (श्वेताश्वतर उपनिषद ६.२३) | अगर हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन में मजबूत विश्वास है और गुरु पर उतना ही विश्वास है, तो यथा देवे तथा गुरौ, तो शास्त्र प्रकट हो जाते हैं । यह शिक्षा नहीं है । यह छात्रवृत्ति नहीं है । यह कृष्ण और गुरु में विश्वास है ।  
 
इसलिए चैतन्य-चरितामृत कहता है गुरु कृष्ण-कृपाय पाय भक्ति-लता-बीज ([[Vanisource:CC Madhya 19.151|चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१५१]]) | शिक्षा से नहीं, छात्रवृत्ति से नहीं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, गुरु कृष्ण-कृपाय, गुरु की दया से, कृष्ण की कृपा से । यह दया का सवाल है । यह छात्रवृत्ति या संपन्नता या समृद्धि का सवाल नहीं है । नहीं । पूरा भक्ति-मार्ग भगवान की दया पर निर्भर करता है । इसलिए हमें दया की भीख माँगनी होगी । अथापि ते देव पदाम्बुज-द्वया-प्रसाद-लेशानुग्रहीत एव हि, जानाति तत्वम... ([[Vanisource:SB 10.14.29|श्रीमद भागवतम १०.१.२९]]) | प्रसाद-लेश, लेश का मतलब है अंश । जिसको परम भगवान की दया का एक छोटा सा अंश प्राप्त हुआ है, वह समझ सकता है । दूसरों को, न चान्य एको अपि चिरम विचिन्वन । अन्य, वे लाखों साल के लिए अटकलें करते रहें । समझना संभव नहीं है । तो भगवद गीता यथार्थ , इसलिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि हम प्रस्तुत कर रहे हैं भगवद गीता जैसे अर्जुन नें समझा था । हम डॉ. राधाकृष्णन, इस विद्वान, उस विद्वान, इस बदमाश, के पास नहीं जाते ....नहीं । हम नहीं जाते । यह हमारा काम नहीं है । यही परम्परा है ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture on SB 1.15.30 -- Los Angeles, December 8, 1973

तो अगर तुम समझना चाहते हो भगवद गीता को, तो हमें उही तरह से समझना होगा जैसे उस व्यक्ति नें सुना । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । मान लीजिए मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु से कुछ सुना है, तो मैं तुम्हें वही बात बातता हूँ । तो यह परम्परा प्रणाली है । तुम मेरे आध्यात्मिक गुरु ने क्या कहा इसकी कल्पना मत करो । या भले ही तुमने कुछ किताबें पढ़ी हों, तुम नहीं समझ सकते हो जब तक तुम मुझ से न समझो । यह परम्परा प्रणाली कहा जाता है । तुम श्रेष्ठतर गुरु तक नहीं पहुँच सकते हो, कहने का मतलब है, तत्काल अगले आचार्य की उपेक्षा करके, अगले आचार्य । बस हमारी तरह, इस गऊ ..., चैतन्य महाप्रभु का पंथ, हम सीधे चैतन्य महाप्रभु को नहीं समझ सकते हैं । यह संभव नहीं है । हमें गोस्वामीयों के माध्यम से समझना होगा । इसलिए तुम पाअोगे चैतन्य-चरितामृत में और हर अध्याय के अंत में, लेखक कहते हैं, रूप-रघुनाथे-पदे ... वह क्या है? कृष्णदास ।

रूप-रघुनाथे-पदे सदा यार अाश
चैतन्य-चरितामृत कहे कृष्ण-दास

यह प्रक्रिया है । वे नहीं कहते कि, "मैं सीधे भगवान चैतन्य महाप्रभु को समझ चुका हूँ ।" नहीं । समझ यह नहीं है । यह मूर्खता है । तुम नहीं समझ सकते चैतन्य महाप्रभु क्या हैं । इसलिए बार बार वह कहते हैं, रूप-रघुनाथ-पदे सदा यार अाश चैतन्य-चिरतामृत कहे कृष्ण-दास । "मैं वह कृष्ण दास हूँ, कवीराज, जो हमेशा गौस्वामीयों की अधीनता के तहत है ।" यह परम्परा प्रणाली है । इसी तरह, नरोत्तम दास ठाकुर भी कहते हैं, एइ छाय गोसाई जार तार मुइ दास, "मैं उस व्यक्ति का दास हूं जिसने इन छह गौस्वामीयों को स्वीकार किया है अपने स्वामी के रूप में । मैं किसी अौर का सेवक नहीं बनूँगा जिसने स्वीकारा नहीं है रास्ता और साधन...." इसलिए, हम कहते हैं, या हम अपने आध्यात्मिक गुरु को प्रार्थना करते हैं रूपानुग-वराय ते, रुपानुग-वराय ते, क्योंकि वह रूप गोस्वामी का अनुसरण करते हैं, इसलिए हम उन्हे स्वीकार करते हैं , अाध्यात्मिक गुरु के रूप में | ऐसा नहीं है कि हम रूप गोस्वामी से बेहतर हो गए हैं,... नहीं । तांदेर चरण-सेबि-भक्त-सने-वास । यह परम्परा प्रणाली है ।

अब यहाँ, एक ही बात को दोहराया गया है: अर्जुन जिसने सीधे कृष्ण से सुना। कभी कभी, कुछ लोगों का कहना है - यह धूर्तता है - कि "अर्जुन नें कृष्ण से सीधे सुना है, लेकिन हम अपनी उपस्थिति में कृष्ण को नहीं पाते हैं, तो मैं कैसे स्वीकार करूँ ? " यह प्रत्यक्ष उपस्थिति का सवाल नहीं है, क्योंकि तुम्हे पूर्ण ज्ञान का कोई पता नहीं है । कृष्ण के शब्द, भगवद गीता, कृष्ण से अलग नहीं हैं । यह कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब तुम भगवद गीता सुनते हो, तुम सीधे कृष्ण से सुन रहे हो, क्योंकि कृष्ण अलग नहीं हैं । कृष्ण परम निरपेक्ष हैं ।

कृष्ण, कृष्ण का नाम, कृष्ण का रूप, कृष्ण की गुणवत्ता, कृष्ण की शिक्षा, सब कुछ कृष्ण का, वे सब कृष्ण हैं । वे सभी कृष्ण हैं । यह समझा जा सकता है । वे कृष्ण से अलग नहीं हैं । इसलिए कृष्ण का रूप है, यहाँ कृष्ण हैं । वह एक मूर्ति नहीं है । "वह एक संगमरमर की प्रतिमा हैं ।" नहीं, वह कृष्ण हैं । वह तुम्हारे सामने प्रकट हुए हैं क्योंकि तुम कृष्ण को नहीं देख सकते हो । तुम पत्थर, लकड़ी देख सकते हो, इसलिए वह उस रूप में प्रकट हुए हैं । तुम्हे लगता है कि यह पत्थर और लकड़ी है , लेकिन वह पत्थर और लकड़ी नहीं है, वह कृष्ण हैं । यह पूर्ण सत्य कहा जाता है । इसी तरह, कृष्ण के शब्द भी कृष्ण से अलग नहीं हैं । जब कृष्ण के शब्द हैं भगवद गीता में, यह कृष्ण हैं ।

जैसे वह दक्षिण भारतीय ब्राह्मण । जैसे ही उसने खोला ... वह अनपढ़ था, वह भगवद गीता नहीं पढ़ सकता था । लेकिन उनके गुरु महाराज ने कहा कि "तुम्हे हर दिन भगवद गीता के अठारह अध्यायों पढ़ने होंगे ।" तो हैरान था, कि, "मैं अनपढ़ हूँ, मैं नहीं कर सकता ... ठीक है, चलो शुरू करू ..., भगवद गीता ।" तो वह एक रंगनाथ मंदिर में था । उसने भगवद गीता ली और इस तरह से चलता रहा । वह नहीं पढ़ सकता था । इसलिए उसके दोस्त, जिन्हे पता था, वे मजाक कर रहे थे "ठीक है, ब्राह्मण, कैसे तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने जवाब नहीं दिया क्योंकि वह जानता था कि वे मजाक उडा रहे हैं क्योंकि "मैं नहीं जानता ... मैं अनपढ़ हूँ ।" लेकिन जब चैतन्य महाप्रभु अाए, वह भी हैरान थे, "ब्राह्मण, तुम भगवद गीता पढ़ रहे हो?" उसने कहा, "प्रभु, मैं अनपढ़ हूँ । मैं नहीं पढ़ सकता । यह संभव नहीं है । लेकिन मेरे गुरु महाराज नें मुझे पढ़ने का आदेश दिया है । मैं क्या करूँ? मैंनें इस किताब को ले लिया है ।" यह गुरु के शब्द के कट्टर अनुयायी हैं । वह अनपढ़ है । वह नहीं पढ़ सकता । कोई संभावना नहीं है ।

लेकिन उनके गुरु महाराज ने आदेश दिया "तुम्हे भगवद गीता दैनिक, अठारह अध्यायों को पढ़ना होगा ।" अब यह क्या है? इस व्यवसायात्मिका बुद्धि: कहा जाता है । मैं काफी अधूरा हो सकता हूँ । कोई बात नहीं है । लेकिन अगर मैं अपने गुरु महाराज के शब्दों का पालन करने की कोशिश करते हूँ, तो मैं पूरा हो जाता हूँ । यही रहस्य है । यस्य देवे परा भक्तिर यथा देवे तथा गुरौ (श्वेताश्वतर उपनिषद ६.२३) | अगर हमें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन में मजबूत विश्वास है और गुरु पर उतना ही विश्वास है, तो यथा देवे तथा गुरौ, तो शास्त्र प्रकट हो जाते हैं । यह शिक्षा नहीं है । यह छात्रवृत्ति नहीं है । यह कृष्ण और गुरु में विश्वास है ।

इसलिए चैतन्य-चरितामृत कहता है गुरु कृष्ण-कृपाय पाय भक्ति-लता-बीज (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१५१) | शिक्षा से नहीं, छात्रवृत्ति से नहीं । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, गुरु कृष्ण-कृपाय, गुरु की दया से, कृष्ण की कृपा से । यह दया का सवाल है । यह छात्रवृत्ति या संपन्नता या समृद्धि का सवाल नहीं है । नहीं । पूरा भक्ति-मार्ग भगवान की दया पर निर्भर करता है । इसलिए हमें दया की भीख माँगनी होगी । अथापि ते देव पदाम्बुज-द्वया-प्रसाद-लेशानुग्रहीत एव हि, जानाति तत्वम... (श्रीमद भागवतम १०.१.२९) | प्रसाद-लेश, लेश का मतलब है अंश । जिसको परम भगवान की दया का एक छोटा सा अंश प्राप्त हुआ है, वह समझ सकता है । दूसरों को, न चान्य एको अपि चिरम विचिन्वन । अन्य, वे लाखों साल के लिए अटकलें करते रहें । समझना संभव नहीं है । तो भगवद गीता यथार्थ , इसलिए हम प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि हम प्रस्तुत कर रहे हैं भगवद गीता जैसे अर्जुन नें समझा था । हम डॉ. राधाकृष्णन, इस विद्वान, उस विद्वान, इस बदमाश, के पास नहीं जाते ....नहीं । हम नहीं जाते । यह हमारा काम नहीं है । यही परम्परा है ।